Sunday, September 28, 2008

तेरे लिए गाऊँगा.....


हो न तू उदास कभी होना न तू निराश
तेरे लिए गाऊँगा मै गीत जिंदगी
फिर तुझे बनाउंगा मैं मीत जिंदगी

जो सहज सरल हो और मन में न कपट धरे
औरों की खुशी का ही सदा ख़याल जो करे
न परायों की विरासतों में ही नजर रखे
अपनों के अभिन्न दुश्मनों के भी जो हो सखे
एक अजातशत्रु हो विनीत जिंदगी ...
तेरे लिए गाऊँगा मै गीत जिंदगी

लौह सा जमाने के जो ताप से पिघल रहा
बन दधिची अस्थियों जो वज्र में हो ढल रहा
वक्त की चलन जो भाँपकर कदम बढ़ा रहा
कर्म के फ़लक पे रंग नित नया चढ़ा रहा
बिन हुए किसी से भयभीत जिंदगी ....
तेरे लिए गाऊँगा मै गीत जिंदगी

त्याग भेदभाव सिर्फ़ स्नेह से गले मिले
विपदाओं में भी लगे जो सदा खिले खिले
अंतरात्मा में तनिक निज का ना गुमान हो
सत्य घुले शब्द प्रेम से पगे जुबान हो
जिसका हो स्वभाव नवनीत जिंदगी ....
तेरे लिए गाऊँगा मै गीत जिंदगी
फिर तुझे बनाउंगा मैं मीत जिंदगी

सुकवि बुधराम यादव

Tuesday, September 23, 2008

परिचय

आदरणीय बुधराम यादव जी , छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध कवि, गीतकार के चरणों में मेरा प्रणाम पहुंचें. मेरे अनेक बार और प्रकार निवेदन, आग्रह के पश्चात् उन्होंने अपने जीवन परिचय का संक्षिप्त नोट ब्लॉग " मनोरथ " के लिए प्रेषित किया. इससे पूर्व मैं उनकी रचनाओं का श्रद्धा पूर्वक पोस्ट-प्रकाशन करता रहा हूँ. इस संक्षिप्त जीवन परिचय से भी मन नहीं अघाया है. उनके व्यक्तिशः विचारों के साथ उनकी रचनाओं का प्रकाशन मेरी हार्दिक इच्छा है, देखें कब तक प्रतीक्षा करना होगा...! उनके रचनाओं का रसास्वादन तो निरंतर रहे यह मेरा अविरत प्रयास रहेगा. अभी यह पढ़े और आनंद लें.

::::::परिचय ::::::

नाम - बुधराम यादव
पिता - श्री भोंदू राम यादव
जन्मतिथि - ग्राम खैरवार खुर्द तहसील लोरमी , जिला मुख्यालय बिलासपुर से 80 किलोमीटर दूर।
शैक्षणिक योग्यता -सिविल अभियांत्रिकी में पत्रोपाधि अभियंता।
साहित्यिक अभिरुचि - छत्तीसगढ़ और हिन्दी में गीत, कविता, लेख
साहित्यिक गतिविधियाँ - वर्ष 1964 में उच्चतर माध्यमिक शिक्षा का विद्यार्थी था तब से छात्तिस्गार्ही एवम हिन्दी में गीत एवम कविता लेखन में गहन अभिरुचि हो चुकी थी संयोग से विविध काव्य संग्रहों, पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही । साथ ही अनेक मंचों तथा आकाशवाणी के माध्यम से प्रसारण के अवसर भी उपलब्ध होते रहे .
समाज के एक सजग प्रहरी की तरह हिन्दी एवम छत्तीसगढ़ की रचनाओं के माध्यम से अलख जाने की मंशा संजोये सामाजिक जीवन के श्रेष्ठ मूल्यों के संरक्षण, लोक संस्कृति, लोक मर्यादा और आंचलिक एवम राष्ट्रीय सदभावनाओं के संवर्धन की कामनाओं को अपनी नियति से जोड़े रखने का सतत अभिलाषी रहा। आपसी स्नेह, सामाजिक समरसता के प्रबल समर्थन में कई संदेश जन रचनाओं का सार्थक सृजन हो सका है ।
संभवतः इन्हीं वजह से इस अदने से रचनाकार को कई साहित्य एवम कला से जुडे संस्थाओं ने अपना स्नेह और सम्मान से नवाजा है ::-
१। तांदुला तरंग कला समिति बालोद, जिला दुर्ग
२। पैरी साहित्य समिति गरियाबंद , जिला रायपुर
३। हिन्दी साहित्य समिति मुंगेली , जिला बिलासपुर
४। समन्वय साहित्य परिवार , बिलासपुर
५। प्रांतीय यादव महासभा जिला इकाई बिलासपुर
६। बिलासा कला मंच बिलासपुर "साहित्य सम्मान"

सम्प्रति - सेवानिवृत्त उप अभियंता, जल संसाधन विभाग छत्तीसगढ़ शासन, अध्यक्ष प्रांतीय छात्तिस्गार्ही साहित्य समिति की जिला इकाई बिलासपुर , अध्यक्ष चंदेला नगर विकास समिति बिलासपुर
वर्तमान पता - एम.आई.जी. -ए/8 चंदेला नगर, रिंग रोड क्र 2 बिलासपुर मोबाइल नंबर-09755141676

Sunday, September 21, 2008

लेकिन छाँव तलक सर ना....

वैसे तो यह ब्लॉग आदरणीय "सुकवि बुधराम यादव जी" को समर्पित ही है। मैं यह आरम्भ से ही प्रयास कर रहा हूँ कि उनकी ऐसी रचनाएँ जो हिन्दी और छत्तीसगढ़ की धरोहर हैं...जो आज से लगभग २०-३० वर्ष पूर्व लिखी गई, विभिन्न मंचों, गोष्ठियों, कार्यक्रमों और आकाशवाणी से भी सुनी गई एवम प्रसारित हुई..किंतु उन्हें अधिकांशतः लेखनी रूप में अधिक पाठकों के बीच नहीं पहुँचाया जा सका ! अतएव इस माध्यम से मैं उनकी उक्त रचनाओं को यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ. विश्वास है आप लोगो को यह प्रयास भायेगा. आपके सुझाव भी सादर विचारणीय हैं.


लेकिन छाँव तलक सर ना....


हुआ नसीब न आम आदमी बनकर भी जीना मरना
मिथ्या है फ़िर आस व्यवस्था से सुविधाओं की करना


सुखी रोटी की आशा में मिहनत कश श्रम बेच रहे
क्षुधा अतृप्त बुझाते अविरल तन से जिनके श्वेद बहे
सिरजे लाख महल हाथों से लेकिन छाँव तलक सर ना....
मिथ्या है फ़िर आस व्यवस्था से सुविधाओं की करना


कुछ मुठ्ठी भर लोग जमाने की राहों को मोड़ रहे
छल प्रपंच से रीति नीति की बाहें तोड़-मरोड़ रहे
जनहित खातिर पाए हक़ से लगे सिर्फ़ झोली भरना....
मिथ्या है फ़िर आस व्यवस्था से सुविधाओं की करना


बहुरूपिये हो रहे आज ये प्रजातंत्र के पहरेदार
दिन प्रतिदिन बौने लगते वे कंधे जिन पर देश का भार
लाकर भी बसंत उपवन में जब पतझर सा है झरना.....
मिथ्या है फ़िर आस व्यवस्था से सुविधाओं की करना


रक्षक ही भक्षक बन बैठे कौन करे किस पर विश्वास
कुछ भी नहीं सुरक्षित मन में हरदम त्रास और संत्रास
बन्दर के जब हाथ उस्तरा मान चलो तब है मरना.....
मिथ्या है फ़िर आस व्यवस्था से सुविधाओं की करना


कैसे कोई रामराज्य के फ़िर सपने होंगे साकार
शबरी जटायु निषाद अहिल्या के कैसे होंगे उद्धार
जिन्हें समस्यायें रुचिकर हों समाधान से क्या करना.....
मिथ्या है फ़िर आस व्यवस्था से सुविधाओं की करना

रचियता ...
सुकवि बुधराम यादव
बिलासपुर

Wednesday, September 17, 2008

सबले गुरतुर गोठियाले ...





सबले गुरतुर गोठियाले तैं गोठ ला आनी बानी के
अंधरा ला कह सूरदास अउ नाव सुघर धर कानी के




बिना दाम के अमरित कस ये
मधुरस भाखा पाए
दू आखर कभू हिरदे के
नई बोले गोठियाये



थोरको नई सोचे अतको के दू दिन के जिनगानी हे
सबले गुरतुर गोठियाले तैं गोठ ला आनी बानी के




एक आखर दुरपती के बौरब
जब्बर घात कराइस
पापी दुर्योधन जिद करके
महभारत सिरजाइस



रितवैया नई बाचिन कौरव कुल चुरवा भर पानी के
सबले गुरतुर गोठियाले तैं गोठ ला आनी बानी के




एईसनाहे एक आखर धोबी
भोरहा मा कहि डारिस
मूड के पथरा गोड़ में अड़हा
अलकरहा कच्चारिस

सुन के राम निकारिस सीता ल तुरते रजधानी ले
सबले गुरतुर गोठियाले तैं गोठ ला आनी बानी के




परके बुध परमती मा कैकयी
दू आखर बर मागिस
अवध राम बिन सुन्ना होगे
दशरथ परान तियागिस

महुरा हितवा नई होवे ना राजा ना रानी के
सबले गुरतुर गोठियाले तैं गोठ ला आनी बानी के




बसीकरण के मंतर मीठ भाखा मा
गजब समाये हे
चिरई चुरगुन सकल जनावर
मनखे तक भरमाये हे

कोयली अमरईया मा कुहके काउआ छानी छानी के
सबले गुरतुर गोठियाले तैं गोठ ला आनी बानी के



रचियता
सुकवि बुधराम यादव
बिलासपुर

Sunday, September 14, 2008

बोके बमुरी तैं चतुरा आमा कैसे खाबे



जइसन करम करबे फल वोइसनहे पाबे
बोके बमुरी तैं चतुरा आमा कैसे खाबे




लंद्फंदिहा लबरा झबरा के
दिन थोरके होथे
पिरकी घलव चकावर करके
मुड़ धर के रोथे
रेंगे रद्दा नरक के कैसे सरग हबराबे
बोके बमुरी तैं चतुरा आमा कैसे खाबे




दूसर बर खंचवा कोडवैया
अपने गिर मरथे
चुरवा भर मा बुड्वैया ला
कौन भला तिरथे
असल नक़ल सब परखत हे अउ कत्तेक भरमाबे
बोके बमुरी तैं चतुरा आमा कैसे खाबे




जनधन पद अउ मान बडाई
पाके झन गरुवा
साधू कस परमारथ करके
पोनी कस हरुआ
बर पीपर बन खड़े खजूर कस कब तक इतराबे
बोके बमुरी तैं चतुरा आमा कैसे खाबे




अंतस कलपाये ले ककरो
पाप जबर परथे
हिन् दुबर दुखिया के सिरतो
सांस अगिन झरथे
छानी ऊपर होरा झन भूंज जर बर खप जाबे
बोके बमुरी तैं चतुरा आमा कैसे खाबे




सब दिन सावन नई होवे
नई होय रोज देवारी
सब दिन लांघन नई सोवे
नई खावे रोज सोहारी
का सबर दिन रहिबे हरीयर कभू तो अयिलाबे
बोके बमुरी तैं चतुरा आमा कैसे खाबे




सौंपत मा झूमे रहिथे
बिपत मा दुरिहाथे
जियत कहिथे मोर मोर
मरे मा तिरयाथे
ये दुनिया के रित एही काखर बर खिसियाबे
बोके बमुरी तैं चतुरा आमा कैसे खाबे




रचयिता
सुकवि बुधराम यादव
बिलासपुर

Tuesday, September 9, 2008

करना कभी न भीष्म प्रतिज्ञा दुविधा में खो जाओगे





करना कभी न भीष्म प्रतिज्ञा दुविधा में खो जाओगे
तन से दुर्योधन का मन से अर्जुन का हो जाओगे



जहाँ सिंहासन रत हो केवल अपनों के हित पालन में
राजधर्म से निकट विमुख हो सत्ता के संचालन में
वहां प्रभावित दंभ कपट से कब तक ना रह पाओगे
तन से दुर्योधन का मन से अर्जुन का हो जाओगे



समय बड़ा बलवान किसी से यारी नहीं निभाता है
करनी के प्रतिफल करता को यथा उचित दे जाता है

आसक्ति अंतस में पाले चैन कहाँ से पाओगे
तन से दुर्योधन का मन से अर्जुन का हो जाओगे



जो जैसा वैसा दिखलाये अच्छा वही तो दर्पण है
निष्ठा और विश्वास जगाये सच्चा वही समर्पण है
अन्यायी के नमक में ऐसा असर कहाँ भर पाओगे
तन से दुर्योधन का मन से अर्जुन का हो जाओगे



होनी होती प्रबल उसे कब कहाँ किसी ने रोका है
किंतु अवांछित परिणामों को बड़े बड़ों ने भोगा है
चीर हरण जैसी घटना के मूक साक्षी रह जाओगे
तन से दुर्योधन का मन से अर्जुन का हो जाओगे



सिर्फ़ विषमताओं को ढोते श्रांत क्लांत मन हो जाए
आखिर प्रायश्चित की खातिर सरशैया भी अपनाए
फ़िर भी कुछ अपराध बोध से जब नयना छलकाओगे
तन से दुर्योधन का मन से अर्जुन का हो जाओगे



रचयिता
सुकवि बुधराम यादव
बिलासपुर

Sunday, September 7, 2008

एक दिन जाना हवय इंहा ले सबला ओसरी पारी




एक दिन जाना हवय इंहा ले सबला ओसरी पारी
तन कैसे कब कहाँ ये ककरो हाथ नहीं संगवारी



अजरा, जतखत, परे डरे कस
का बिरथा जिनगानी
खरतर, गुनवंता, धनवंता
जात सुघर तोर परानी
पाछू के बिसराके जम्मो आघू चलो सुघारी
एक दिन जाना हवय इंहा ले सबला ओसरी पारी



हित मीत बन जीलव जग में
बैर भाव सिरवा के
कौन भला जस पाथे
दूसर के अंतस पिरवा के
नाम छोड़ ढही जाहय सगरी सिरजे महल अटारी
एक दिन जाना हवय इंहा ले सबला ओसरी पारी




सम्मुहे गुरतुर पाछू चुरकुर
दगाबाज गोठियाथे
परहित अउ परकाज करे खातिर
जौन मन ओतियाथे
मतलब साधे बर बोलय हितवा संग घलव लबारी
एक दिन जाना हवय इंहा ले सबला ओसरी पारी



चारी चुगरी कर नारद
छल कर सकुनि कहवा ले
तोर अमोल तन ला
गंगा चाहे डबरी नहवा ले
ये कंचन काया खोजे में फिर नई मिले उधारी
एक दिन जाना हवय इंहा ले सबला ओसरी पारी



पाप पुन्न सब धरम करम
अउ रात दिन सुख दुःख के
उंच नीच गहिरा उथली
अउ नींद पियास भूख के
सिरिफ निबहैया वोही करइया हे सबके चिनहारी
एक दिन जाना हवय इंहा ले सबला ओसरी पारी



तोर मोर का जम्मो झन के
एक ठन वोही गोसईया
चिरई चुरगुन चीटी ले
हाथी तक वोही पोसैया
मन के सगरी भरम छोड़ के ओखरे पाँव पोटारी
एक दिन जाना हवय इंहा ले सबला ओसरी पारी


रचयिता
सुकवि बुधराम यादव
बिलासपुर

Thursday, September 4, 2008

हम तेरी मनुहार में मितवा कैसे गीत सुनाये




हम तेरी मनुहार में मितवा कैसे गीत सुनाये
सिसक रहे सब साज उम्र के कैसे राग मिलाये



सुख दुःख की अनुभूति
वक्त ने बेहद जटिल दिया है
जीते बाजी हार में यूँ
उसने तब्दील किया है
कई विसंगतियों के कितने कारण क्या बतलाये
हम तेरी मनुहार में मितवा कैसे गीत सुनाये



अभिशापित सी हुई जिंदगी
नीरवता को जीने निकट
अकिंचन इस काया के
फटेहाल को सीने
अनुभव की कुछ अर्जित दौलत है जो तुम्हें लुटाएं
हम तेरी मनुहार में मितवा कैसे गीत सुनाये



संध्या साथ लिए आती है
निशा एक अनजानी
किसको व्यथा बताएं अपनी
किसको राम कहानी
रात पहाती है आँखों में बैठे दिवस बिताये
हम तेरी मनुहार में मितवा कैसे गीत सुनाये



इस विराम सफ़र में थककर
पग जब भी रुक जाते
अनजाने अनचाहे बरबस
गीत अधर तक आते
टुकडों में बिखरे शब्दों से कैसे छंद बनाए
हम तेरी मनुहार में मितवा कैसे गीत सुनाये



रचयिता
सुकवि बुधराम यादव
बिलासपुर

आदरणीय बुधराम यादव जी की रचनाये सुनता पढता मै बड़ा हुआ हूँ... मूलतः यह रचनायें अद्भुत कवित्व....के साथ गेय शब्दावली शैली में रचित हैं , जो की आदरणीय बुधराम जी के मुख से सुने बिना अधूरे हैं। chhatisgadhi लोक साहित्य में यह वस्तुतः दुर्लभ है। लेकिन यहाँ पर मेरी भी विवशता है कि उपलबध्ता के परिसीमा में जो हो सका है वह आपके सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूँ। आदरणीय को सुकवि कि उपाधि उक्ताशय से ही प्रदत्त है। कभी कवि सम्मलेन अथवा किसी गायन कार्यक्रम में उन्हें सुनना आदरणीय के प्रति सम्मान को वृद्धि ही करती है। अब आप भी उनकी रचनाओं का पाठन करते हुए उस अद्भुत गेयता का रसास्वादन का अनुभव करें।

Tuesday, September 2, 2008

ऐसी ज्योति जला दो कोई

ऐसी ज्योति जला दो कोई कण कण सब रोशन हो जायें
भू पर बिखरे भेदभाव के सारे गहन तिमिर छंट जाएँ


दीप मालिका से यूँ कब तक
आँगन का श्रृंगार करोगे

अविवेक तम् का यूँ बुधजन
कब तक न प्रतिकार करोगे
ऐसी प्रीति जगा दो कोई दुश्मन शुभचिंतक बन जाए
ऐसी ज्योति जला दो कोई कण कण सब रोशन हो जायें



निर्मित कर स्वपंथ अहम् का
भस्मासुर कोई मत सिरजाओ
मानव मूल धर्म विस्मृत कर
मानवता को मत ठुकराओ
गंगा कोई बहा दो ऐसी सारे दलित पतित तर जाएँ
ऐसी ज्योति जला दो कोई कण कण सब रोशन हो जायें



अब न करो संकल्प नया कोई
धरती पर भगवान् को लाने
केवल यत्न करो तन मन से
इंसा को इंसान बनने
ऐसी सोच सृजन कर कोई हर चिंतन दर्शन बन जाए
ऐसी ज्योति जला दो कोई कण कण सब रोशन हो जायें



फूलों के बीच पालने वाले
काँटों की पीड़ा क्या जाने
तारों को सहलाने वालें
क्यों रोती वीणा क्या जाने
ऐसी रीत बता दो कोई जन जन समदर्शी बन जाए
ऐसी ज्योति जला दो कोई कण कण सब रोशन हो जायें


रचयिता
सुकवि बुधराम यादव
बिलासपुर

Monday, September 1, 2008

संगी मन थोरुक बढे चलव गा

अब झन करव अबिरथा अबेर गा
संगी मन थोरुक बढे चलव गा
भाई मन चिटुक बढे चलव गा !!

अतियाचार करिन बैरी जब तुम निचट देह डारेव !
सुमता छांड अपुस मा दुरमत ला हितवा कर डारेव !!
लाज लुताइस दाई दीदी के , होइस अब्बड़ हलाल !
फांसी चढ़ गय मान रखे बर कई झन माई के लाल !!
अब मत होवे ओइसनहे अंधेर गा....
संगी मन थोरुक बढे चलव गा ...

अंतियावत अब चलव जवारिहा धन होय तुंहर जवानी !
माटी खातिर मर खप जावव कर लव नाव निसानी !!
सुघर घरी हे सुघर महोरत अउ सुघर मौका हे !
देश के झंडा ऊपर उठावव तब संगी ठौका है !!
पवन पावय झन दिया ल चलव घेर गा ....
संगी मन थोरुक बढे चलव गा ...

महतारी के बीर पुट अउ समरथ तुंहर में भारी !
छुए मा माटी सोन होथे गुन तुंहर हे बलिहारी !!
चाहव त पाटे समुंद पटावय फोरे फूटे पहार !
भेदभाव के ठाडे जब्बर लउहा फोरव करार !!
मन मा काबर करत हवव तभो ढेर गा ...
संगी मन थोरुक बढे चलव गा ....

तुंहर जोम अउ जोर गजब हे दुश्मन घलव बखाने !
ये धरती के रित नित ला दुनियाँ घलव हा जाने !!
गुसियावाव तो लखन लगव अउ मरजादा म राम !
हुंकारत मा हनुमत लगव करम करत घनश्याम !!
रिनहा जग हे भले , तुम हवव कुबेर गा.....
संगी मन थोरुक बढे चलव गा ...

जौन गिरे, हपटे, मदियावय बांह पकड़ के उठावव !
निर बुद्धि ,भकला, जकला ला घलव गा संग लगावव !!
बिलग बिलग मा बल बंतांठे बैरी बैर सधाथे !
सुमता देख सुमत घर-घर में सुख सौंपत पहुन्चाथे !!
अईसन घरी इंहा आथे एको बेर गा ...
संगी मन थोरुक बढे चलव गा ...

अब कभू कोई अतियाचार के झन घपतय अंधियारी !
जम्मो जुरमिल करम धरम के चलव दियना बारी !!
नवा समे के नवा देश मा नवा बिहान करव गा !
सरग बनाए बर भुइया ला सही धियान धरव गा !!
सतयुग ला लावव कलजुग मा फेर गा ...
संगी मन थोरुक बढे चलव गा ...

गजब भागीरथ तप कर जानव गंगा लाये हन !
कठिन बड़े महाभारत लड़के तिरंगा पाए हन !!
रंग बिराजे तिन गुन एकर , तीनो ताप नसांवय !
महिमा महामंत्र जप एकर जन गन मंगल पांवय !!
सरके चलाव तभे पहुंचब संझकेर गा ....
संगी मन थोरुक बढे चलव गा ...!!

रचियता
सुकवि बुधराम यादव
वर्ष- १९७८ बिलासपुर