Wednesday, August 10, 2011

हमें आज़ाद होने का अभी, मतलब नहीं आता





मेरे प्रिय ग़जलकार प्रमोद रामावत "प्रमोद" स्वाधीनता सन्दर्भ 
को लेकर क्या रचते हैं.. क्या ग़जब तेवर हैं आप भी देखिये तो सही... 

गुलामी में जो जज्बा था, नज़र वो अब नहीं आता 
हमें आज़ाद होने का अभी, मतलब नहीं आता 

गुलामों की तरह ही जी रहे हैं, लोग लानत है 
शहादत के लिए चाहें तो अवसर कब नहीं आता 

हम ही हाक़िम, हम ही मुंसिफ़ हम हैं चोर-डाकू भी 
करें हम ख़ुदकुशी तो फ़िर बचाने रब नहीं आता 

लड़ाने के लिए तो बीच में मज़हब ही आता है 
छुड़ाने को पुलिस आती है, तब मज़हब नहीं आता 

हमारी जातियाँ दीवार बन जाती है रिश्तों में 
मगर ज़ब खून चढ़ता है, ये मुद्दा तब नहीं आता 

Sunday, July 10, 2011

गाँव कहाँ सोरियावत हे .. भाग-14 [ समापन भाग ]



सुकवि बुधराम यादव की लम्बी कविता "गाँव कहाँ सोरियावत हे" की अगली कड़ी  भाग- 14 [ समापन भाग ] के रूप में प्रस्तुत है. इस अंक में " अंखमुंदा भागत हें " में कवि ने लोक और उसके महात्म्य को स्मरण किया है... 

अंखमुंदा भागत हें

कहे भुलाइन कनिहा कोहनी
घुठुवा मुरूवा* माड़ी !
पिसनही जतवा* ढेंकी* अऊ
मूसर धूसर कॉंड़ी*!
पर्रा* बिजना* टुकना टुकनी
पैली* काठा खाँड़ी !
सेर पसेरी नादी* ठेकवा*
दीया चुकलिया* चाँड़ी !
लीटर मीटर किलो म अब
जिनिस ह जमो नपावत हे!

बटलोही* बटुवा थरकुलिया*
कोपरा कोपरी हंडा!
किरगी-किरगा* पाला* पौली*
अउ दरबा* सत खडा!
बटकी  मलिया* गहिरही*
हाथी पाँव कटोरा!
फूल कांस थारी म परसय
जेवन बहू अंजोरा!
अब फकत फाइबर चीनी के
घर घर सेट सजावत हें!

नींद भर रतिहा ले जागंय
अउ का म बुता ओसरावंय!
चटनी बासी टठिया भर
बेरा ऊवत पोगरावंय*!
हंसिया कुदरी धरे हाथ
मुंड़ म डेकची भर पानी!
पाछू पाछू चलय मंडलिन
आगू चलय जहानी!
अब तो आठ बजे जागंय अउ
चाह म चोला जुड़ावत हे!

राखड़ यूरिया अउ पोटास
संग कइ किसम के  खातू!
कीरा मारे बर बिरवा के
कइ ठन छींचय बरातू!
साग पान के  सर सुवाद ह
बिलकुल जनव परागे!
रसायन खातू के  मारे
भुइंया जनव खरागे*!
अब तइहा कस बासमती न
महाभोग महावत* हें!

बावा भलुवा चितवा तेंदुवा
सांभर अउ बन भैंसा!
रातदिना बिचरंय जंगल म
बिन डरभय दू पैसा!
नसलवादी अब इंकर बीच
डारत हावंय डेरा!
गरीब दुबर के  घर उजार के

अपने करंय बसेरा!
तीर चलइया ल गोली बारूद
भाखा ओरखावत हें!

जबरन मारंय पीटंय लूटंय
जोरे जमो खजाना !
बेटा बेटी अगवा करके
सौंपंय फौजी बाना !
हमर घर भीतर घुसरके
हमरे मुड़ ल फाँकंय !
जेकर हाथ लगाम परोसी
कस दूरिहा ले झाकंय !
कांकेर बस्तर जगदलपुर का
सरगुजा दहलावत हें!

देश धरम बर जीवइया ल
खाँटी दुसमन जानय!
कानून कायदा राज काज
हरके -बरजे* नइ मानय!
बिना दोष के  मारंय पीटंय
लूटंय सकल उजारंय!
संग देवइया मन के  जानव
कारज जमो सुधारंय!
बिरथा मोह के  मारे मुरूख
बस दुरमत* बगरावत हें!

कतको   चतुरा मनुख हवंय
चाहे कतको   धनवंता !
कतको   धरमी-करमी चाहे
अउ कतको   गुनवंता !
कतको   रचना रचिन भले
अउ धरिन बड़े कइ बाना
इहें हवय निसतार जमो के
का कर सरग ठिकाना !
अखमुंदा भागत हें मनो
पन-पंछी अकुलावत हें !

गाँव रहे ले दुनिया रइही
पाँव रहे ले पनही
आँखी समुहें सबो सिराये
ले पाछू का  बनही !
दया मया के  ठाँव उजरही
घमहा मन के  छइहाँ
निराधार के  ढेखरा* कोलवा
लुलूवा मन के  बइंहाँ !
नवा जमाना लगो लउहा*
जरई अपन जमावत हें ।


हिंदी अरथ-   घुठुआ मुरुआ -कलाई, जतवा- मिट्ïटी की बड़ी चकी जिसमें कोदो दला जाता है , ढेंकी- पैरों द्वारा धान कुटने हेतु लकड़ी से निर्मित उपकरन, कांडी- लकड़ी में बनाया हुआ गड्ïढा जहाँ अनाज भरकर कूटते हैं, पर्रा- बाँस से बना गोलाकार आकृति का पात्र, बिजना- बाँस से बना हाथ से झलने वाला पँखा , पैली- अनाज नापने की बाँस से निर्मित सबसे छोटी टोकनी, नादी- दिये से बड़े आकार का मिट्ïटी का पात्र, ठेकवा - पाव दो पाव तक तरल पदार्थ रखने का  दोहनीनुमा मिट्ïटी का पात्र, चुकलिया - मिट्ïटी से निर्मित कटोरीनुमा पात्र , बटलोही- कांसे से निर्मित बटुवा से छोटा पात्र, थरकुलिया- कांसे से निर्मित छोटी थाली, किरगी-किरगा- अनाज रखने की कोठी, पाला- अनाज रखने की बड़ी कोठी, पौली- मिट्ïटी से निर्मित विशिष्टï अनाज रखने की छोटी कोठी , दरबा- कीमती वस्तुओं को रखने हेतु मिट्ïटी से बनी दरवाजे वाली कोठी , मलिया- कांसे की प्लेट, गहिरही- बासी आदि खाने के लिए कांसे से बनी गहरी थाली, पोंगारान्वय- अधिकार में लेना , खरागे- तपजाना, खरापन आ जाना, मम्हावतखुशबू होना, हरके-बरजेमना करना, दुरमत- कुमति, बैर -भाव, दुराग्रह, धेखरा- लताओं और बेलाओं को सहारा देने हेतु जमीन मे गड़ायी गयी पेड़ की  डाली,लउहा अविलंब, शीघ्र.

समापन

Saturday, July 9, 2011

गाँव कहाँ सोरियावत हे .. भाग-13


सुकवि बुधराम यादव की लम्बी कविता "गाँव कहाँ सोरियावत हे" की अगली कड़ी भाग- 13 के रूप में प्रस्तुत है. इस अंक में " महंगा जमो बेचावत हें " में कवि ने लोक और उसके महात्म्य को स्मरण किया है... 

महंगा जमो बेचावत हें

रूपिया भर म कतेक  बतावन
का  का  जिनिस बिसावन!
कॉंवर भर भर साग पान
टुकना भर अन्न झोकावन!
राहर दार लुचई के  चाऊंर
चार चार सेर लावन!
अइसन सस्ता घी अउ दूध के
पानी असन नहावन!
अब सरहा पतरी के  दाम ह
रूपिया ले अतकावत* हे!

‘‘पानी के  बस मोल’’ के  मतलब
सस्ता निचट कहाथे!
अब तो लीटर भर जल ह पन
बीस रूपिया म आथे!
थैला भर पैसा म खीसा भर
अब जिनिस बिसाथन!
महंगाई के  जबर मार ल
रहि रहि के  हम खाथन!
मनखे के  मरजाद छोड़ अब
महंगा जमो बेचावत हे!

सपना हो गय तेल तिली के
अउ तेली के  घानी!
अरसी अंड़ी भुरभुंग लीम अउ
गुल्‍ली आनी बानी!
सरसों अउ सूरजमुखी संग
सोयाबिन महगागय!
जमो जिनिस के  दाम निखालिस*
सरग म जनव टंगागय!
घी खोवा अउ दही दूध ल
मुरूख जहर बनावत हें!

रूपिया भर म नूनहा बोरा
चार आना सेर चाऊंर!
बिना मोल कस कोदो कुटकी*
साँवा* सहित बदाऊर* !
'वार बाजरा जोंधरा जोंधरी
धनवारा* गुड़ भेली!
बटुरा मसुरी चना गहूं
सिरजइया महल हबेली!
तिवरा राहर मूंग मोल अब
सरग म गोड़ लमावत हे।

रूपिया चार आना अठन्नी
जांगर टोर क मावंय!
ठोमा-खाँड़* पसर का  चुरकी
भुरकी  भर भर लावंय!
बांट बांट कुरूचारा*  कस
जुरमिल के  सब खावंय!
एक  दूसर के  सुख दुख सिरतों
जानय अउ जनावंय!
अब सौ रूपिया घलव कमा के
कल्लर-कइया* लावत हें!


हिंदी अरथ-  अतकाव - अधिक होना, निखालिस- केवल, निश्चित माने, कुटकी- कोदो प्रजाति की फसल जो अविकसीत भूमि में जंगल प्रक्षेत्र में बोई जाती है, सांवाएक  तरह की घास जिसे अकाल की स्थिति में लोग अन्न के  रुप खाते हैं , बदाउरएक तरह की घास, घनवारा- गुड़ बनाने हेतु गन्ने के खेत में स्थापित चरखे की जगह ठोमा-खांड -हथेली भर, कुरूचारा- आपस में पक्षियों का  चारा बाँटने की प्रक्रिया, कल्लर-कईयाआपसी-विवाद, अशांति

Friday, July 8, 2011

गाँव कहाँ सोरियावत हे .. भाग-12



सुकवि बुधराम यादव की लम्बी कविता "गाँव कहाँ सोरियावत हे" की अगली कड़ी भाग- 12 के रूप में प्रस्तुत है. इस अंक में "तइहा के  सब बइहा ले गय" में कवि ने लोक और उसके महात्म्य को स्मरण किया है... 

तइहा के  सब बइहा ले गय

तइहा तिरिथ बरथ खातिर
घर ले कउनों जब जावंय!
जमो कुटुम जुरियाये गांव के
मेड़ो तक  पहुंचावंय!
गुनय बहुर के  आ पाही के
ओही कती खप जाही!
तुलसा दही खवादंय मरके
कहुं सरग मिल पाही!
रेंगत आवंय जावंय सुन के
अब अतंस करलावत हे!

माड़ी भर धुर्राये धरसा
गदफद* चिखला मातय!
चार महीना चौमासा ल
सजा बरोबर काटंय!
पट पट ले अब सुखा चिमटी
भर धुर्रा नइ माढय़!
गिट्टी डामर सिरमिट के  अउ
काम दिनो दिन बाढय़!
राजीव इंदिरा अटल सड़क  ले
गांव गांव जुरियावत हें।

मुरूम भांठा डोंगरी पहरी
नदिया खंड़ के  रेती!
बड़े असामी* मन बर हो गंय
जनव अनाथिन बेटी!
धन बल अउ सरकार के  सह म
कब्‍जा अपन जमाथें!
रतिहा भर म कुहरा उगलत
करखाना लगवाथें!
डपर ट्रक  ट्राली डोजर करेन
करेसर म सरकावत हें!

बिघवा चितवा नरवा झोरकी
तीर म माड़ा* छावंय!
छेरिया बोकरी बछरू पठरू
सुन्ना पा धर खावंय!
हिरना मिरगा सांभर चीतर
खेतखार मेछरावंय*!
तरिया नदिया घठौंदा*
पानी पीये आवंय!
मनखे के  मारे जंगल म
बपुरा जीव लुकावत* हें!

तइहा के  सब बइहा ले गय
जानव सही जवारा!
कोस कोस मेला ठेला अब
धाप धाप हटवारा!
मोटर गाड़ी जीप कार के
रस्ता भर भरमार!
सड़क  पूरे नइ आवय तभो
छेंकत हें बटमार!
चिंरइ चिरगुन जइसन मनखे
मन के  गति जनावत हें!

मड़ई मेला हाट बाट बर
लइका  संग सुवारी!
छकड़ा घोड़ा गाड़ी के  जब
चाहंय करंय सवारी!
अन्न धन्न भरपूर तभो
दर्रा* घोटों* उन खावंय!
दूध दही धी बरा सोहारी
पहुंना पही जेवावंय!
चटनी बासी अंगाकर के
नाव लेत सकुचावत हें!

घर अंगना चूल्हा चौंकी 
पानी कॉंजी भरइया!
कुटिया पिसिया बेरा कुबेरा
बनी भूती क रइया!
सरसतिया शिक्षा कर्मी
सरपंच बनिस परबतिया!
सहेली के  संग सुघ्‍घर
संदेश देवय दुरपतिया!
राजनीति भंडार घलव म
तिरिया संग समावत हे!


हिंदी अरथ- गद्फद- दलदलनुमा, असामीधनवान या बड़ी औकात वाले,  माड़ाबसेरा, मेंछरांवय- फुदकना, छलांग भरना, घठौंदा- घाट , लुकावतछुपना-छिपाना, दर्रा- गेंहूँ की  दलिया और चांवल से बनी खिचड़ी या भात, घोटों- मसूर, बटर, तिवरा आदि के  आटे की  लुगदीनुमा खिचड़ी