Wednesday, June 29, 2011

गाँव कहाँ सोरियावत हे .. भाग-11


सुकवि बुधराम यादव की लम्बी कविता "गाँव कहाँ सोरियावत हे" की अगली कड़ी भाग- 11 के रूप में प्रस्तुत है. इस अंक में "मातर जागंय" में कवि ने लोक गीत-नृत्य, खेल,पशु-धन और उसके महात्म्य को स्मरण किया है... 

मातर जागंय

बड़ा अटेलिहा* अहिरा छोकरा
दूध बिना नइ खावंय !
घाट पाट बीहर जंगल म
गाय अउ भैंस चरावंय !
भड़वा मन म दूध चुरोवंय
मरकन* दही जमावंय !
भिनसरहा ले चलय मथानी
ठेकवन* लेवना पावंय !
घी के  बदला दूध ल अब तो
खोवा बर खौलावत हें !

चरवाही संग गाय भैंस के
रच्‍छा सुघर करे बर !
किसान कन्‍हाई कुल के  देवता
पूजंय दुख हरे बर !
नवा खवावंय मातर जागंय
पुरखन ल फरियादंय !
गांव ठांव म सबके  मंगल
ठाकुर देव ले मागंय !
बिन दइहान अब दुल्हादेव* के
खोड़हर* नइ पूजावत हें !

एकादशी देवारी धर के
कातिक  तइहा आवय !
अंगना डेहरी तुलसी चौरा
म दीयना ओरियावंय !
रइया* सुमिरंय अउ गोर्रइया*
बस्ती के  ओ मरी मसान
पुरखन के  चौंसठ जोगनी ल
सुमिरंय, कहंय करौ कइलान !
घर अंगना का छन* म तइहा कस
अब नइ खउरावत* हें!

गोबर के  सुखधना* किसानन
के  कोठी म मारंय !
अउ सुख सौंपत खातिर उंकर
सुघ्‍घर शबद उचारंय !
गर म सुहई* बांध गाय के
पइयां परंय जोहारंय !
अन-धन बाढय़ दूध बियारी
मालिक  करव गोहारंय !
आज सुहई संग नेह के
लरी घलव मुरझावत हें !

सरधा जबर रहंय तइहा
अउ सिरतो म पुरसारथ !
पन अइसन कुछ बात घलव
जे लागंय निचट अकारथ !
बात बात म लाठी पटकंय
मुड़ अउ माथा फोरंय !
अपने जांघ उघारंय अउ
फदिहत कर दांत निपोरंय !
बाहिर ले उज्‍जर झलके  बर
अग भीतर फरियावत हें!

ठौर ठौर म देखव तो अब
राउत नाचा होथे !
कला समुंद म लोक के जानव
कइ बूंद अपन समोथें !
साजू बाजू कलगी पगड़ी
घुंघरू मुंदरी माला !
फरी हाथ संग दू ठन लाठी
ऊपर फरसी भाला !
पुरखन के  बाना ल धर के
जुग संग कदम मिलावत हें !

चमक  धमक  अउ सिरिफ देखावा
दिन दिन बाढ़त जाथे !
गड़वा बाजा अहिरा बाना
दोहा घलव नदाथें !
गय ठाकुर के  ठकुरी जानव
अउ अहिरन के  अब तो मान !
उतियाइल* मन मुखिया होगंय
धरसा तक  म बोइन धान !
सरोकार सब लोगन मन के
नदिया जनव सरावत* हें !

धरती पिरथी पुरखा पुरबज
मन के  भाखा बानी!
झुमरंय नाचंय अउ बजावंय
गावत रहंय जुबानी !
अतमा सगा परतमा बइठे
जुरके  सुनय सुनावंय!
ये ओड़हर* म अंतस के  सब
इरखा डाह बुझावंय!
अब पहुना के  आवब कलकुत*
जावब जबर सुहावत हे!

हिंदी अरथ :- अटेलिहा- अखड़ स्वभाव के,  मरकन- मिट्टी के बड़े बर्तन, ठेकवन- मिट्ïटी के  दोहनी जैसे बर्तन, सुखधना- गोबर हाथ में लेक र अन्न कोठी में शुभकामना देना, सुहई- कार्तिक एकादशी और पूर्णिमा को गाय के गले में बाँधने हेतु परसा की जड़ की रस्सी से बनाई गई कई लरों की रंगीन रस्सी, दुल्हादेव- कुलदेवता , खोरहर- लकड़ी का  खंभा जिसमें कुल देवता का स्थापित कीया जाता है, रईया- संक्रामक रोगों से रक्षा करने वाले देव, गोरईया- गौठान की रक्षा करने वाले देवता, काछन -सवारी आना, खऊरावत- धूल-धूसरित क रना, उतयाईल उपद्रवी, सरावत- विसर्जित करना, ओढर- बहाना, निमिट्टत, कलकुत- असुविधाजनक

Tuesday, June 28, 2011

गाँव कहाँ सोरियावत हें..भाग-10

सुकवि बुधराम यादव की लम्बी कविता "गाँव कहाँ सोरियावत हे" की अगली कड़ी भाग- १० के रूप में प्रस्तुत है. इस अंक में "नाचा-गमत" में कवि ने लोक गीत-गायक, खेल-तमाशा,मनोरंजन,बाजार  को स्मरण किया है... 

नाचा-गमत

नाचा गमत रहस लीला तक
धीरे धीरे नदाथें!
सधे मजे कइ कलाकार ल
लोगन घलव भुलाथें!
चैन चिकरहा तुला तबलहा
रघ्‍घु जइसन रागी!
परी प्रेम जोधन कस जोकर
मसलहा* बैरागी!
गिरिवर के  नाचब ल अभो
गली-गली गोठियावत हें!

पुतरी अउ ओ रहस लीला के
दिन जानव दुरिहागंय!
टी व्ही विडियो फिल्मी एलबम
ठौर म इंकर समागंय!
ब्रहा,बिसनू,पारबती,शिव,
संग राधा गिरधारी!
बिसर के  चारो धाम करावत
हें सिरियल म चारी*!
भेख बदलगे देश बदलगे
बपुरा करम ठठावत* हें!

हाथी आतंकी  कस लागंय
भीम ह नसल वादी!
धरे तंबूरा नारद लागय
डोकरी संग फरियादी!
गाय बछरूवा अउ जनता के
गइया गति होवत हे!
अहिरा कस सरकार कलेचुप*
मुड़ धर के  रोवत हें!
चतुरा चमरू चिकरहा संग
रामू राग मिलावत हे!
चरकोसी ले रहस लीला के
आरो* तइहा जावय!
गाड़ा गाड़ी भर भर लइका -
-पिचका  धर धर आवंय!
नवछटहा अलबेला टूरा
अउ मलमलही* टूरी!
पान चबावंय मुंह रचावंय
पहिरंय रंग-रंग चूरी!
सुरता के  गंगा म डुबकी
देखनहार लगावत हें!

बीच बीच म सूत्रधार जब
किसन कथा समझावय!
सरधा ले सुनय जुरमिल के
जयकारा बोलवावंय!
रहय मनौती जेकर ओ
नाचा गमत करवावंय!
मेला मड़ई अउ पाबन कस
सब अतमा जुरियावंय!
लरा-जरा* के  खातिर अब तो
असली ल तिरियावत हें !

बिन मतलब के  अब चतुरा जब
देव दनुज नइ लेखंय!
फेर मसाल म आँखी फोरत
सरी रात का  देखंय!
सुवा ददरिया करमा भोजली
बर बिहाब अउ पंथी!
बांस गीत भरथरी अउ आल्हा
गावत कोड़ंय खंती!
एलबम रेडियो टी.व्ही. टेप म
अब तो मन बहलावत हें!

हिंदी अरथ:- मसलहा- मसाल दिखाने वाला, चारी- निंदा-परिचर्चा, ठठावत- पीटना, कलेचुप-चुपचाप रहना ,आरो- आवाज, शोर गुल, मलमलही-स्व प्रदर्शन की  भावना से प्रेरित युवती, लरा-ज़रा- ऐरे-गैरे, दूर के  रिश्ते,  


Tuesday, June 14, 2011

"गाँव कहाँ सोरियावत हे" भाग- 9

सुकवि बुधराम यादव की लम्बी कविता "गाँव कहाँ सोरियावत हे" की अगली कड़ी भाग- 9 के रूप में प्रस्तुत है. इस अंक में "सारंगी जब बाजय" में कवि ने लोक गीत-गायक, खेल-तमाशा,मनोरंजन,बाजार  को स्मरण किया है... 


सारंगी जब बाजय
भिनसारे ले हर-बोलवा मन 
रूख ले अलख जगावंय!
झुनकी  घुंघरू संग मजीरा
धरे खंजरी गावंय!
भाग देख दरवजा आइन
हर गंगा दुहरावंय!
सबके  मंगल अपन संग म
मालिक  ले गोहरावंय!
अब अपन हित खातिर पर के
गर म छुरी चलावत हें!

बेंदरा भलुवा धरे मदारी
जब गलियन म घूमय !
डमरू के  डम डम ल सुनके
लइका  पिचका  झूमय!
डांग* चढ़ंय डंग-चगहा* कइ ठन
हुनर अपन देखावंय!
गुप्ती के  पैसा अउ कोठी
के  अन्न हर ले जावंय!
बस्तरिहा ओ जरी बूटी न
बैद सही अब आवत हें!

गोरखनाथी गोदरिया के
सारंगी जब बाजंय!
काम बुता ल छोड़ के  लोगन
खोर गली बर भागंय!
भजन भरथरी अउ गोरख के
गा गा गजब सुनावंय!
हटवरिया* पखवरिया* भर
मेड़ो-डाँड़ो* तक  जावंय!
अब तो ठगे जगे बर कतको 
गलियन अलख जगावत हें!

खदबदहा* असाढ़ अब बरसय
सावन गजब चुरोवय!
पानी खिरत जात हे दिन दिन
भादो महीना रोवय!
अमली छइहाँ खड़े पहटिया*
चकमक चोंगी खोंचय !
मुड़ म खुमरी* तन भर कमरा 

रुख म ओठगे सोचय! 
गौचर कब्‍जा करवइया के
गौ हर काय नठावत* हें !

बइहा पूरा तइहा के  अउ
नदिया-खंड़* के  खेती!
पानी बुड़ गय जमो कमाई
लगय राम के  सेती!
हाट बाट अउ गांव गंवतरी
सपना लागय जावब!
गरीब दुबर के  चिंता बाढय़
का  पीयब का  खावब!
धंधा पार उतारे के  अब
केवट के  दुबरावत हें!

हिंदी अरथ-  डांग- दो बांसों को गड़ाकर उसमें रस्सा बांधकर रस्सी में चढऩे की प्रक्रिया, डगचगहा-डाँग पर चढऩे वाले बंजारा प्रवृत्ति के लोग, हटवारिया- सप्ताह भर में , पखवरिया- पखवाड़े भर, मेडो-डाँडो - दो गाँवों की  सीमा, खदबदहा- अनियमित,खंड-खंड में, पहटिया- भैंसों के  समूह का  चरवाहा, खुमरी- बाँस की  पतली पट्टी और पलास आदि की पत्तियों से खूबसूरत सिर ढकने हेतु बनी छतरी, नठावत- कसूर या अपराध, नदिया-खंड- नदी किनारे.

Monday, June 13, 2011

"गाँव कहाँ सोरियावत हे" भाग- 8


सुकवि बुधराम यादव की लम्बी कविता "गाँव कहाँ सोरियावत हे" की अगली कड़ी भाग- 8 के रूप में प्रस्तुत है. इस अंक में "बिन पानी" की अद्भुत गेय पंक्तियों में रचनाकार पानी के महत्त्व, रखरखाव और हमारी दिन-ब-दिन की लापरवाही को उजागर कर रहे हैं साथ ही थोड़ी बात संसाधनों पर भी है.

बिन पानी 
रतनपुर जइसन कइ गढ़ के
छै छै कोरी तरिया।
बिना मरमत खंती माटी
परे निचट हें परिया
बरहों महीना बिलमय पानी
सोच उदिम करवइया!
जोगी डबरा टारबांध
स्टापडेम बनवइया!
मिनरल वाटर अउ कोल्डड्रिंक
फेंटा पीके  गोरियावत हें!

पुरखौती कुवाँ बवली के
पानी धलव अटाथे!
नदिया खँड गहिरा झिरिया म
रेती सिरिफ तकाथे* !
भाजी भांटा कोंचइ कॉंदा
बिन पानी का  जगरंय !
हरियर चारा दुबी झुरागंय
गाय गरू का  बगरंय!
रसाताल* के  पानी सोत ह
दिनो दिन गहिरावत हें!

पचरी घाट नहावंय तइहा
अउ अड़बड़ सुख पावंय!
अब तरिया भर पचरी पन
बिन पानी कहाँ नहावंय!
गली खोर अउ चौबट्टा म
हेंडपंप जब हालंय!
बिन पानी के  दू असाढ़ कस
बैरी जइसन घालंय!
जलधारा स्कीम मनइ के
संसार ल सरसावत हें!

चौमसहा जब झड़ी झकोरय
चमचम बिजली मारय!
चिमनी दीया बुझावंय झप-झप
बिना तेल का  बारंय!
अँधियारी म टमड़त* परछी
बर मनटोरा जावय!
सन्‍डइला* काड़ी ल बपरी*
लकर-धकर* सुलगावय!
अब एक ल बती ह घर घर
म अंजोर बगरावत हें!

बादर बरसय घरती सरसय
बाउग करंय बियासी!
चिखला कांदो कांटा खूंटी
उखरा गोड़ उपासी!
परय तुतारी टिकला बलहा
छद बद छद बद भागंय!
अमरित खातिर जनव मतावंय
क्षीर समुंदर लागंय!
अब टेटर के  आगू कोपर
नागर ल सरकावत हें!

गाँव-गौटिया बड़े किसनहा
गाँव-गंवतरी* जावंय।
छकड़ा-गाड़ी* घोड़ा-बघ्‍घी
खूब सुघर संभरावंय!
गर भर घुंघरू कौड़ी बांधय
माथा मलमल पट्टी!
मूंगा माला अउ जुगजुगी
नाथत जावंय सत्‍ती*!
अब दरवजा फटफटही अउ
जीप कार घर्रावत हें!

छन छन खन खन घंरा बाजंय
सरपट बैला भागंय !
चमकंय झझकंय डहर चलइया
सुतनिंदहा मन जागंय !
ढरका  फुदकी  टपटप टपटप
धोड़ा चाल देखावंय !
चाबुक  देखे बिदकंय बैरी
जोरहा हिन हिनावय !
बर बिहाव सरकस म अब तो
धोड़ा कभू नचावत हें !

हिंदी अरथ-  तकाथे - दिखता है, रसाताल- धरती भीतर, तमरत- ढूंढऩा, संडइला- एक पौधा जिसका तना सूख जाने पर नरम होता है और जलाने पर रोशनी देता है, कहीं कहीं सन-पटुवा के  डंठल को भी संडइला कहते हैं, बपरी- बेचारी, लकर-धकर- जल्दबाजी में, गाँव गंवतरी- पहुनाई, मेहमानी, छकड़ा गाड़ी- सजे-धजे बैलों की  सवारी गाड़ी, सत्ती- उपद्रवी, मनमानी करने वाला,