Sunday, January 20, 2013

असुविधा हुई तो काहे का एक्ट और सुविधा के लिए क्यों नहीं एक्ट


ट्रेफिक रूल्स, कोलाहल नियंत्रण अधिनियम, गुटखा, पान मसाला, तम्बाकू पदार्थ के उपयोग से सम्बंधित एक्ट और आबकारी अधिनियम..आदि कुछ इस तरह और भी नितांत आम जीवन को रेगुलेट करने वाले एक्ट हैं. हमारी सोच तो देखिये हम स्वयं तो इनका पालन करते नहीं और उस पर फिर अपनी छोड़ दूसरों से पालन कराने के लिए कानून लागू कराने वाली एजेंसियों से अपेक्षा करते हैं बल्कि कई बार तो उनसे भिड भी जाते हैं. कभी कभार मन कहे या संस्कार पुकारे तो यह सोच कर मना लेते हैं कि हम ऐसा करने से स्मार्ट साबित हुए. वो देखो कब से बेवकूफों की तरह भीड़ में लाइन लगाए खडा है या....! एक मिनट की जल्दी से हम सिकंदर हो जाते हैं. चोरी-छिपकर इनकी अवहेलना से हम होशियार हो जाते हैं. अपनी असुविधा पर काहे का एक्ट और सुविधा के लिए क्यों नहीं एक्ट. ये तो है फेक्ट. एक्ट पर कुछ तो हो पोजिटिव एक्ट.

                                                           आम आदमी के जीवन को रेगुलेट करने वालों प्रावधानों में दलित और महिलाओं से सम्बंधित एक्ट भी हैं. आखिरकार समाज के इतने बड़े तबके को प्रभावित करने वाले पहलुओं को अनदेखा कैसे किया जा सकता है. इस मसले पर भी दोहरे मापदंड का ट्रीटमेंट देखने में आता है. जो चतुर है वह इन प्रावधानों का न केवल उपयोग करता है बल्कि दुरुपयोग भी करता है...वहीँ दूसरी और जो वास्तविक रूप से पीड़ित होते हैं वह अपनी बात कह नहीं पाते या फिर उनके प्रति न्यूनतम संवेदनशीलता का अभाव होता है. परिणाम यह होता है के इन प्रावधानों का समुचित उपयोग हो नहीं सका है. एक तरफ ज्यादती की लाइन क्रास हो रही तो दूसरी और लोग फिनिशिंग लाइन तक नहीं पहुँच पा रहे. पर प्रशासन की गैर-जिम्मेदारी और असंवेदनशीलता के लिए कोई बहाना उपयुक्त नहीं.