Saturday, July 5, 2014

चारमीनार का नारको टेस्ट २

ये क्या हुआ...आया तो था नारकोटिक्स केसेस में कुछ बेहतर साइंटिफिक ऐड वाले इन्वेस्टीगेशन सीखने एक सेमीनार के लिए. पर शाम को घूमते फिरते जब चारमीनार देखने पहुँचा तो हैदराबाद से उसके पुराने रिश्ते के मद्देनजर धीरे से कुछ जानने की इच्छा हो गयी. पूछा तो उसने साफ़ मना कर दिया. उससे इस कदर बेरुखी की उम्मीद न थी. मैंने उसे एक बार भरी नजर से देखा और लम्बी सांस लेने की इच्छा के बावजूद वहाँ पसरी गर्दी को महसूस कर घुटे हुये से आवाज में फिर मिन्नत की. पुराना, बेहाल, निपट चुके बूढ़े, तिस पर एक मीनार पर बंधी मरहम पट्टी।  फिर भी जवाब आया..न.  इसके इसी जिद ने इसे इस हाल में पहुँचाया होगा . ऐसा सोचते हुए मीनार से पूछा - तुम कौन सी बात नहीं बताने के लिए यूँ चुप्पी लगाये हो. उस निजाम, उन ताबेदारों या आज के रहनुमाओं के. यहाँ से गुजर रहा हरेक शख्स तुम्हारे वजूद से बाख़बर पर तुमसे बेख़बर है. पर तुम कहो न कहो यहाँ तिजारत करते दिख रही बुर्का वालियों की तरह इस आधी चाँदनी और  मोतियों की दूकान वाली आधी रौशनी में तुम्हारे चेहरे पर तारी  मायूसी कुछ बयाँ तो कर रही है. उसे पढ़ने की कोशिश करते ही तुरंत ख़याल आया ये क्या.. इसमें क्यूँ इमोशनल होकर वक्त जाया किया जाये.क्यों न आज की क्लास में सीखे फार्मूला को आजमाया जाये. इस बेजान बन रहे मगर  अपने आग़ोश में कई इतिहास छुपाये चारमीनार से उसकी दास्ताँ सुन ली जाये... क्यूं न चारमीनार का "नारको टेस्ट' कर लिया जाये.



                         इसी तरह चारमीनार से गुफ़्तगू शायद थोड़ी देर और चलती लेकिन साथ ही चल रही "सीमा" [ मेरी पत्नी ] ने अपनी "मनुहार" वाली आवाज से क्रम तोड़ दिया- देखिये, कोकिला के लिए कोई छोटा मोटा खिलौना लेके मोतियों की दुकान पर चलते हैं मुन्नू ने यहीं का पता बताया है. हाँ यह ठीक रहेगा- मैंने बिना कुछ ज्यादा सोचे कह दिया. कैमरे को पाकेट में रखते हुए मैंने चारमीनार से "ख़िदमत में सलाम अपुन" के अंदाज में सर झुकाया तो उधर से तुरत फुरत में जवाब मिला- इस तरह के ख़िदमत से बेहाल हूँ. कुछ ना कहो यार. मैंने कुछ न कहते हुए सीमा की ओर निगाहें की किया इशारे में ही कल फिर आने की बात चारमीनार को समझाते वहाँ से मोतियों की दुकान की तरफ रवाना हो गया. मोतियों की दूकान पर मोबाइल हाथ में लिए सवालों का एक खाका तैयार करने लगा। …… लिखा 

 ऐ चारमीनार बता..

@ सबसे पहले निजाम के विरासतों में क्या हैदराबाद का ये हाल भी शामिल है. तुम्हारे एक मीनार के पाए पर आबाद मंदिर नुमा घेराबंदी क्या हमारी गंगा-जमुनी तहजीब का एक रंग है, या हमारे सेमीनार को-ऑर्डिनेटर रामाराव और मेरे ड्राईवर वाहिद जैसे लोगों के डर का एक अबूझ हिस्सा ?

@ एक तरफ डॉट कॉम के चमचमाते ऑफिस है तो दूसरी तरफ दस्त कम और जवानी बढाने वाले हकीमों के विज्ञापन भी है..तुम किसकी तरफ हो चारमीनार ?

@ हैदराबादी बिरयानी का ग्लो साइन बोर्ड पर प्रचार करते पैराडाइज शाप और उसकी ब्रान्चेस है और उसके साथ-साथ वो टपरे भी है जिनके बाहर हकाली गयी भेड़ें-बकरी भी जो बेकदरी से  छिले-कटे और लटके अपने साथी को निहारते  ख़ुद की बारी का इंतज़ार कर रही है. क्या वो कातर निगाहें अक्सर तुम्हारी ओर भी देखती है चारमीनार ?

@ हुसैन सागर पर शान्ति के प्रतीक स्वरुप बुद्ध की वह प्रतिमा, कद के हिसाब से बने अपने बड़े-बड़े कानों पर हाथ धरे दिखती है, जो नेकलेस, वी.आई.पी.रोड से घिर चुके झील पर चल रहे स्टीमर्स, मोटर बोट, उस पर सवार लोगों के शोर और झील के किनारे महा नगरनिगम की निगाह में किरकिरी बने झुग्गियों से आती रोजमर्रा के चीखों से बचना चाहती है. ऐसा मैं सोचता हूँ..पर बुद्ध कहते है...चारमीनार जाने.

@ मेरा ड्राईवर वाहिद पिछले 15 साल से ड्राइवरी करता, 35 साल से हैदराबाद में रहता है.वालिद के इंतकाल से पहले से ही काम करने लगा फ़िर इंतकाल के बाद उस काम के अलावा कुछ कर भी ना सका. शायद इसीलिए केवल तेलुगू में लिखे बोर्ड को मुझे पढ़कर नहीं बता सकता. बोलता है मदरसा भी नहीं जा सका, अपनी जबान में तुमसे शिकायत भी नहीं कर सकता. मैं पूछता हूँ.. वाहिद ! फ़िर तुम खुश कैसे रहते हो.. ? वह मुस्कराते हुए कहता है- साब, ये तो चारमीनार जाने.

@ आसपास के ग्रामीण, उपनगरीय लोगों को मिला लिया जाये तो करीब एक करोड़ की आबादी को चलने-फिरने लायक बनाती यहाँ की ट्रेफिक व्यवस्था, गलियों,सड़कों से लेकर प्रस्तावित मेट्रो रेल. सब खराब पड़े ऑटोमेटिक सिग्नल पर खड़े ट्रेफिक पुलिस की तरह है जो कभी सिग्नल, कभी भीड़ तो कभी अपने नाक पर बंधे रुमाल को देखता है. और हर एक मिनट में हांथो से इशारा कर पूरे मन से सिग्नल को कोसता है. मैंने एक सिग्नल पर किसी सिटी बस से डेस लग जाने पर निराकार हो गये ऑटो रिक्शा के निर्विकार चालक से कुछ पूछने की मुद्रा बनाई तो वह उसी भाव से कहता सुनाई दिया- मई कयाँ बोलूँ, सब चारमीनार जाने.

@ और हाँ, केंद्र सरकार और राज्य सरकार के गिने-चुने शासकीय भवनों के अलावा कहीं भी हिंदी का कोई बोर्ड नहीं, बाजार में हिंदी विज्ञापन नहीं, पी.वी.आर तक में हिंदी सिनेमा नहीं, कथित हिंदी पट्टी के सेलिब्रिटीज का नामोनिशान नहीं [ धोनी के एक्का-दुक्का बोर्ड को छोड़कर ], बुक स्टाल पर हिंदी किताब, मेगजीन भी नहीं, हिंदी में सूचना नहीं, हिंदी में जानकारी नहीं, हिंदी अखबार भी नहीं. एक बात सुकून का है आम आदमी हिंदी समझता है और जवाब भी कमोबेश दे देता है. इससे यह भ्रम जरुर दूर हो रहा है कि क्या जरुरी है. हम हिंदी प्रदेश वाले भी इन्हीं नाटकों के अलावा हिंदी में करते क्या है, जो हम करते है वो तो ये भी समझते है. पर एक चिंता जरुर होने लगी कि चारमीनार से सवाल हिंदी में करूँ या फ़िर...!

@ इस महानगर के भविष्य के बारे में बात करने पर मेरे ड्राईवर वाहिद की एक बात याद रह जाती है - साहब जी ! तेलंगाना वालों ने पिछले कई सालों से हलाकान कर रखा है. बंद, बंद फ़िर बंद सब ठप्प हो गया है. मैं उससे कुछ पूछता मगर क्या पूछूं ! जाहिर है, सवाल तो वह कर रहा है...! क्यों चारमीनार..?

ओहो..हैदराबाद में और भी बहुत कुछ है....बहुत से सवाल हैं मगर आज इतना ही...

सभी के ख़िदमत में सलाम अपुन का.

हैदराबाद डायरी.


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समीर यादव 

चारमीनार का नारको टेस्ट

March 9, 2011 at 8:23pm
ये क्या हुआ...आया तो था नारकोटिक्स केसेस में और बेहतर साइंटिफिक ऐड के साथ इन्वेस्टीगेशन पर सेमीनार के लिए..पर शाम को घूमते फिरते जब चारमीनार देखने पहुँचा तो हैदराबाद से उसके पुराने रिश्ते के मद्देनजर धीरे से कुछ जानने की कोशिश की तो उसने साफ़ मना कर दिया. उससे इस कदर बेरुखी अपेक्षित नहीं थी. मैंने उसे एक बार भरी नजर से देखा और लम्बी सांस लेने की इच्छा के बावजूद वहाँ पसरी गर्दी को महसूस कर घुटे हुये से आवाज में फिर मिन्नत की. पुराना, बेहाल, निपट चुके बूढ़े, तिस पर एक मीनार पर मरहम पट्टी बंधी फिर भी जवाब आया..न. इसके इसी ज़ज्बे ने इसे इस हाल में पहुँचाया होगा ..ऐसा मन में सोचते मीनार से पूछा- तुम कौन सी बात नहीं बताने के लिए यूँ चुप्पी लगाये हो. उस निजाम, उन ताबेदारों या आज के रहनुमाओं के. यहाँ से गुजर रहा हरेक शख्स जैसे तुम्हारे वजूद से बाख़बर पर तुमसे बेख़बर. तुम कहो न कहो यहाँ तिजारत करते दिख रही बुर्का वालियों की तरह इस आधी चाँदनी और  मोतियों की दूकान वाली आधी रौशनी में तुम्हारे चेहरे पर पसरी मायूसी कुछ बयाँ तो कर रही है. उसे पढ़ने की कोशिश करते ही तुरंत ख़याल आया ये क्या.. इसमें क्यूँ इमोशनल होकर वक्त जाया किया जाये.क्यों न आज की क्लास में सीखे फार्मूला को आजमाया जाये. इस बेजान बन रहे पर अपने आग़ोश में कई इतिहास छुपाये चारमीनार से उसकी दास्ताँ सुन ली जाये... क्यूं न चारमीनार का "नारको टेस्ट' कर लिया जाये.

चारमीनार का नारको टेस्ट ..... जारी ....हैदराबाद डायरी के साथ..!

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समीर यादव