जीवन की पीड़ाओं से यह मन व्याकुल जब हो जाता है
तब सावन नयनों में भरकर गीत अधर पर जन्माता है
सूरज का बस तपन झेलता
सदा पिपासित मरुथल रहकर
सागर को जल दे जाती हैं
दूर दूर से सरिता बहकर
ऐसा विषम विधान देखकर मन आकुल जब हो जाता है
तब सावन नयनों में भरकर गीत अधर पर जन्माता है
दर दर भटके उमर बेचारी
केवल एक किरण को पाने
चिंतन जनम जनम भर तरसे
दर्शन का वह रूप ना जाने
ऐसा मन का एक " मनोरथ " अभिशापित जब हो जाता है॥
तब सावन नयनों में भरकर गीत अधर पर जन्माता है
काँटों के बीच पुष्प पनपते
यह सबने स्वीकार लिया है
इसलिए सुख कि आशा में
दुःख को अंगीकार किया है
लेकिन जग का सुख सारा जब कैद महल में हो जाता है
तब सावन नयनों में भरकर गीत अधर पर जन्माता है
जीवन के कोई विषम क्षणों में
अपनों ने मुख मोड़ लिया हो
सारे पावन रिश्ते नाते
क्षण में केवल तोड़ दिया हो
तब एकाकीपन से बोझिल मन कुछ पल जब हो जाता है
तब सावन नयनों में भरकर गीत अधर पर जन्माता है
रचयिता
सुकवि बुधराम यादव , वर्ष - १९८०
बिलासपुर
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