हो न तू उदास कभी होना न तू निराश
जो सहज सरल हो और मन में न कपट धरे
लौह सा जमाने के जो ताप से पिघल रहा
त्याग भेदभाव सिर्फ़ स्नेह से गले मिले
सुकवि बुधराम यादव
सबले गुरतुर गोठियाले तैं गोठ ला आनी बानी के
अंधरा ला कह सूरदास अउ नाव सुघर धर कानी के
बिना दाम के अमरित कस ये
मधुरस भाखा पाए
दू आखर कभू हिरदे के
नई बोले गोठियाये
थोरको नई सोचे अतको के दू दिन के जिनगानी हे
सबले गुरतुर गोठियाले तैं गोठ ला आनी बानी के
एक आखर दुरपती के बौरब
जब्बर घात कराइस
पापी दुर्योधन जिद करके
महभारत सिरजाइस
रितवैया नई बाचिन कौरव कुल चुरवा भर पानी के
सबले गुरतुर गोठियाले तैं गोठ ला आनी बानी के
एईसनाहे एक आखर धोबी
भोरहा मा कहि डारिस
मूड के पथरा गोड़ में अड़हा
अलकरहा कच्चारिस
सुन के राम निकारिस सीता ल तुरते रजधानी ले
सबले गुरतुर गोठियाले तैं गोठ ला आनी बानी के
परके बुध परमती मा कैकयी
दू आखर बर मागिस
अवध राम बिन सुन्ना होगे
दशरथ परान तियागिस
महुरा हितवा नई होवे ना राजा ना रानी के
सबले गुरतुर गोठियाले तैं गोठ ला आनी बानी के
बसीकरण के मंतर मीठ भाखा मा
गजब समाये हे
चिरई चुरगुन सकल जनावर
मनखे तक भरमाये हे
कोयली अमरईया मा कुहके काउआ छानी छानी के
सबले गुरतुर गोठियाले तैं गोठ ला आनी बानी के
रचियता
सुकवि बुधराम यादव
बिलासपुर
जइसन करम करबे फल वोइसनहे पाबे
बोके बमुरी तैं चतुरा आमा कैसे खाबे
लंद्फंदिहा लबरा झबरा के
दिन थोरके होथे
पिरकी घलव चकावर करके
मुड़ धर के रोथे
रेंगे रद्दा नरक के कैसे सरग हबराबे
बोके बमुरी तैं चतुरा आमा कैसे खाबे
दूसर बर खंचवा कोडवैया
अपने गिर मरथे
चुरवा भर मा बुड्वैया ला
कौन भला तिरथे
असल नक़ल सब परखत हे अउ कत्तेक भरमाबे
बोके बमुरी तैं चतुरा आमा कैसे खाबे
जनधन पद अउ मान बडाई
पाके झन गरुवा
साधू कस परमारथ करके
पोनी कस हरुआ
बर पीपर बन खड़े खजूर कस कब तक इतराबे
बोके बमुरी तैं चतुरा आमा कैसे खाबे
अंतस कलपाये ले ककरो
पाप जबर परथे
हिन् दुबर दुखिया के सिरतो
सांस अगिन झरथे
छानी ऊपर होरा झन भूंज जर बर खप जाबे
बोके बमुरी तैं चतुरा आमा कैसे खाबे
सब दिन सावन नई होवे
नई होय रोज देवारी
सब दिन लांघन नई सोवे
नई खावे रोज सोहारी
का सबर दिन रहिबे हरीयर कभू तो अयिलाबे
बोके बमुरी तैं चतुरा आमा कैसे खाबे
सौंपत मा झूमे रहिथे
बिपत मा दुरिहाथे
जियत कहिथे मोर मोर
मरे मा तिरयाथे
ये दुनिया के रित एही काखर बर खिसियाबे
बोके बमुरी तैं चतुरा आमा कैसे खाबे
रचयिता
सुकवि बुधराम यादव
बिलासपुर
सम्मुहे गुरतुर पाछू चुरकुर
दगाबाज गोठियाथे
परहित अउ परकाज करे खातिर
जौन मन ओतियाथे
मतलब साधे बर बोलय हितवा संग घलव लबारी
एक दिन जाना हवय इंहा ले सबला ओसरी पारी
पाप पुन्न सब धरम करम
अउ रात दिन सुख दुःख के
उंच नीच गहिरा उथली
अउ नींद पियास भूख के
सिरिफ निबहैया वोही करइया हे सबके चिनहारी
एक दिन जाना हवय इंहा ले सबला ओसरी पारी
तोर मोर का जम्मो झन के
एक ठन वोही गोसईया
चिरई चुरगुन चीटी ले
हाथी तक वोही पोसैया
मन के सगरी भरम छोड़ के ओखरे पाँव पोटारी
एक दिन जाना हवय इंहा ले सबला ओसरी पारी
रचयिता
सुकवि बुधराम यादव
बिलासपुर
हम तेरी मनुहार में मितवा कैसे गीत सुनाये
सिसक रहे सब साज उम्र के कैसे राग मिलाये
सुख दुःख की अनुभूति
वक्त ने बेहद जटिल दिया है
जीते बाजी हार में यूँ
उसने तब्दील किया है
कई विसंगतियों के कितने कारण क्या बतलाये
हम तेरी मनुहार में मितवा कैसे गीत सुनाये
अभिशापित सी हुई जिंदगी
नीरवता को जीने निकट
अकिंचन इस काया के
फटेहाल को सीने
अनुभव की कुछ अर्जित दौलत है जो तुम्हें लुटाएं
हम तेरी मनुहार में मितवा कैसे गीत सुनाये
संध्या साथ लिए आती है
निशा एक अनजानी
किसको व्यथा बताएं अपनी
किसको राम कहानी
रात पहाती है आँखों में बैठे दिवस बिताये
हम तेरी मनुहार में मितवा कैसे गीत सुनाये
इस विराम सफ़र में थककर
पग जब भी रुक जाते
अनजाने अनचाहे बरबस
गीत अधर तक आते
टुकडों में बिखरे शब्दों से कैसे छंद बनाए
हम तेरी मनुहार में मितवा कैसे गीत सुनाये
रचयिता
सुकवि बुधराम यादव
बिलासपुर
आदरणीय बुधराम यादव जी की रचनाये सुनता पढता मै बड़ा हुआ हूँ... मूलतः यह रचनायें अद्भुत कवित्व....के साथ गेय शब्दावली शैली में रचित हैं , जो की आदरणीय बुधराम जी के मुख से सुने बिना अधूरे हैं। chhatisgadhi लोक साहित्य में यह वस्तुतः दुर्लभ है। लेकिन यहाँ पर मेरी भी विवशता है कि उपलबध्ता के परिसीमा में जो हो सका है वह आपके सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूँ। आदरणीय को सुकवि कि उपाधि उक्ताशय से ही प्रदत्त है। कभी कवि सम्मलेन अथवा किसी गायन कार्यक्रम में उन्हें सुनना आदरणीय के प्रति सम्मान को वृद्धि ही करती है। अब आप भी उनकी रचनाओं का पाठन करते हुए उस अद्भुत गेयता का रसास्वादन का अनुभव करें।
ऐसी ज्योति जला दो कोई कण कण सब रोशन हो जायें
भू पर बिखरे भेदभाव के सारे गहन तिमिर छंट जाएँ
दीप मालिका से यूँ कब तक
आँगन का श्रृंगार करोगे
अविवेक तम् का यूँ बुधजन
कब तक न प्रतिकार करोगे
ऐसी प्रीति जगा दो कोई दुश्मन शुभचिंतक बन जाए
ऐसी ज्योति जला दो कोई कण कण सब रोशन हो जायें
निर्मित कर स्वपंथ अहम् का
भस्मासुर कोई मत सिरजाओ
मानव मूल धर्म विस्मृत कर
मानवता को मत ठुकराओ
गंगा कोई बहा दो ऐसी सारे दलित पतित तर जाएँ
ऐसी ज्योति जला दो कोई कण कण सब रोशन हो जायें
अब न करो संकल्प नया कोई
धरती पर भगवान् को लाने
केवल यत्न करो तन मन से
इंसा को इंसान बनने
ऐसी सोच सृजन कर कोई हर चिंतन दर्शन बन जाए
ऐसी ज्योति जला दो कोई कण कण सब रोशन हो जायें
फूलों के बीच पालने वाले
काँटों की पीड़ा क्या जाने
तारों को सहलाने वालें
क्यों रोती वीणा क्या जाने
ऐसी रीत बता दो कोई जन जन समदर्शी बन जाए
ऐसी ज्योति जला दो कोई कण कण सब रोशन हो जायें
रचयिता
सुकवि बुधराम यादव
बिलासपुर