Wednesday, January 4, 2012


यहाँ भी इतना गुबार कि साफ़ नजर नहीं आता .....



                       भीड़ में से खास मशक्कत के बिना भीतर-बाहर करा देने वाले, कमिटी ऑफिस में बिठाकर चाय, पानी, ठंडा पूछते पिलाते हजार भर का दान दिलवा देने वाले, चढ़ावा अपनी पहचान की दूकान से इस स्पेशल ऑफर के साथ कि सामान सीधे चढ़ेगा फिर बिकने नहीं आएगा, खरीद कराने वाले , जूते ऐसी मुफ्त जगह पर जहाँ से जूते लेते समय सहज सेवाभाव की जगह कुछ पाने का तेवर दिखता हो, पर रखवाने वाले की मदद से वह बाहर निकला. सभी कामों के हिस्सेदार हो गये ऐसे "मददगार" को कृतग्य भाव से पांच सौ का नोट पकडाते देख आसपास मंडराते खुलेआम माँगने वालों में से एक महिला ने भी कुछ पाने की इच्छा से हाथ आगे बढ़ाया. तुरंत उस खादिम ने इस तरह माँगने वालों को उससे दूर करने में फिर मदद की. उसके चेहरे पर पहले अनदेखा करने फिर हिकारत के भाव जाहिर होने पर दूसरी महिला ने तपाक से कह दिया- "साहब उसके लिए पांच सौ का नोट और हमारे लिए कुछ नहीं...!" इस बात पर उसकी भृकुटी तिरछी हो....अहां..तिरछी नहीं दू कोणीय हो गयी. एक तो खुद की हरकत पर हैरत से. और दूसरी उसके लिए, अंदर जिससे मिलने आया था. पता नहीं इस जगह ऐसे आलम में भी इतना गुबार क्यों ..कि उसे साफ़ नजर नहीं आता और करीने से आँखों के कोर पोंछ लेने के बाद भी....मुझे भी.  


........वर्ष २०१२ 

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