Saturday, March 10, 2012

कहीं राह में रख देते तो बेहतर था


प्रमोद रामावत की गजल.....

१.

खामोशी का अर्थ समझने की खातिर 
सारा जीवन शोर मचाते रहते हैं 

सिर का इससे अच्छा क्या उपयोग करें  
यहाँ वहां हर जगह झुकाते रहे 

उनको मुझसे निस्बत है या नफरत है 
लिख कर मेरा नाम मिटाते रहते हैं 

हमको आँगन की पीड़ा से क्या मतलब 
हम तो बस दीवार बनाते रहते हैं  

किसी तरह दिल को समझाते रहते हैं 
हम पत्थर पर फूल चढ़ाते रहते हैं 

कहीं राह में रख देते तो बेहतर था 
गंगाजी में दीप बहाते रहते हैं 

                                                                                                                                                                              २.                                            

सादगी चाहिए सादगी के लिए 


मैं अकेला जिया इस सदी के लिए 
आदमी की तरह आदमी के लिए 

दुश्मनी से भरा ये जहां और मैं 
हर किसी से मिला दोस्ती के लिए 

प्यास बढ़ती गयी जल सिमटता गया 
अब दुआ कीजिये बस नदी के लिए 

रहनुमाई की जिद फिर अँधेरी सड़क 
मैं जला उम्र भर रौशनी के लिए 

हुस्न मोहताज है सादगी का मगर 
सादगी चाहिए सादगी के लिए 

आसमां पर हजारों फ़रिश्ते है कम 
इक मसीहा बहुत है जमीं के लिए   

.............प्रमोद रामावत 



Friday, March 9, 2012

रहनुमा हैं इसलिए ये तो सुधरने से रहे .........

प्रमोद रामावत "प्रमोद" अपने तेवर में उसी तरह पेश आते हैं कि बस..... कुछ कसक के साथ कुछ महसूस हो, फिर लगे कुछ जरुर हो ..








रहनुमा हैं इसलिए ये तो सुधरने से रहे .........

जब महल से दूर बस्ती तक सवारी जायेगी
तब किसी मासूम की नथ भी उतारी जायेगी

सिलसिला यूँ ही चलेगा ये सुबह होने तलक
और भी शायद कोई लड़की पुकारी जायेगी

हम अभी कचरा हमारा झोपड़ों पर डाल दें
फिर दिखाने को कोई कुटिया बुहारी जायेगी

देखता है कौन सीरत हर तरफ है आईने
आईनों के वास्ते सूरत निखारी जायेगी

आज वो मेहमान है अच्छी तरह ख़ातिर करें
कल हमारे हाथ से उनकी सुपारी जायेगी

आज तक समझे नहीं ये लोग दंगों के उसूल
भीड़ बेतादाद है बस भीड़ मारी जायेगी

रहनुमा हैं इसलिए ये तो सुधरने से रहे
रहनुमां के वास्ते बस्ती सुधारी जायेगी


..........प्रमोद रामावत
संपर्क- 09424097155 




Friday, February 17, 2012

मानसी ये तुमने क्या किया ......?


पुलिस स्टेशन इंचार्ज का कमरा 

एक कानूनन बालिग़ युवती सहज होने की कोशिश में अस्थिर आँखों को उठाती गिराती मोल्डेड कुर्सी के कभी आगे तो कभी पीछे खिसकती जल्दी से उस पल के गुजर जाने की दुआ कर रही है. उसके बाईं ओर उसी के पिता, दाहिनी ओर पखवाड़े भर पहले ही उसके आर्य समाज मंदिर में बने पति के पिता और सबसे बायें दोनों परिवार के शुभचिंतक बैठे थे. सामने कुर्सी पर सिविल कपड़ों में एक पुलिस अधिकारी. इन सबके बीच लड़का एक किनारे खड़ा सिर फर्श पर लगे नए टाईल्स की तरफ किये उसमें नजर आ रही धुंधली सी तस्वीर में मन ही मन कुछ बना बिगाड़ रहा था.


शुभचिंतक - चलिए इतनी मुश्किल के बाद दोनों आ तो गये साहब.... अब बयान हो जाये.


लड़की का पिता - तुम्हे २० साल पूरे नाजो-नजाकत, लाड़ प्यार से हमने पाला. जो जानते थे वो संस्कार दिया. हमसे क्या गलती हो गयी जो तुमने हमें ये दिन दिखाया. अब भी उसे छोड़कर आ जाओ, मैं तुम्हें घर में जगह दूंगा...नहीं तो तुम हमारे लिए मर गयी समझो. झुकी आँखों के भीगे कोर पोंछ कर दबे सीने को सामान्य करते हुए शुभचिंतकों की ओर देखने लगा.


लड़के का पिता - साहब, लड़के ने जो कदम उठाया उसकी हमें ज़रा भी जानकारी नहीं थी. हम उसके इस काम से सहमत भी नहीं हैं पर अब इसने ऐसा कर लिया है तो हमें लड़की को घर में तो रखना पड़ेगा. वाक्य पूरा होते ही सामने से निगाह हटाकर निर्विकार भाव से शुभचिंतकों की ओर देखने लगा.


पुलिस अधिकारी ने जैसे ही लड़के की तरफ निगाह की वहाँ बैठे कई लोगों ने एक साथ कहा - अर्चित, साहब तुमसे कुछ पूछ रहे हैं.
लड़का - हडबडाते हुए .. सर अभी एन.आई.आई.टी. से डिप्लोमा कोर्स कर रहा हूँ और जॉब के लिए प्रयास भी.


पुलिस अधिकारी - लड़की की तरफ बिना देखे ..तुम्हारा क्या कहना है मानसी ? 


लड़की याने मानसी - पुलिस अधिकारी की ओर बिना देखे.. पापा, आप हमें इसी तरह अपना लो न, मैं जानती थी आप लोग नहीं मानेंगे इसलिए ये कदम उठाया. मैं अर्चित को छोड़कर नहीं आ सकती इसी के साथ रहूंगी. दृढ़ता से हुई शुरुआत रुवांसे गले में फंसकर दो वाक्यों में खतम हो गयी.


पुलिस अधिकारी - तुमने कहाँ तक पढाई की है मानसी


आर्ट्स ग्रेजुअट हूँ सर...  


जीवन कैसे चलेगा तुम दोनों का ...प्रेक्टिकल जवाब देना.
पुलिस अधिकारी की भंगिमा में बातचीत को अधिक लंबा न खीचने का साफ़ संकेत था.


सब एक दूसरे की तरफ देखते है फिर गहरी चुप्पी छा जाती है 


ये तो लड़का है इसे तो समाज ने ही प्रमाण पत्र दे रखा है. कितने ही प्यार करे .. शादियाँ करे ..गलतियां करे. पर मानसी का क्या ? रहेगी तो इसके साथ, जैसा वो रखे, या अर्चित के पिता के हिसाब से जैसा उसे पड़े. वैसे घर से निकले तो दोनों साथ ही थे पर अब .....!  इतनी मशक्कत के बाद .... अर्चित , अर्चित के पिता, खुद उसके पिता और क़ानून के मौजूद होते हुए भी क्या मानसी का भविष्य सुखमय होना तय है ?
या फिर बार-बार ये सुनते हुए कि "मानसी ये तुमने क्या किया ?" मानसी का संघर्ष जारी रहेगा ...

Thursday, January 5, 2012

डिनर पार्टी ............





                        
                अक्सर हम ऐसे शानदार डिनर पार्टी के बहाने मिलते क्यों हैं, जाहिरा तौर पर एक दूसरे से मोहब्बत दिखाते हैं, ख़याल रखना जताते हैं. सेहतमंद खाने और टकराते जाम से मन के मलिन को साफ़ करना बताते हैं, पर सच्चाई ये है कि मैं एक रशियन डिप्लोमेट हूँ मुझे बुलाकर आप हॉट कॉफी की तरह कौमीय रिश्तों की गर्मी आकाओं की निगाह में बनाए रखना चाहते हैं. दीगर दुनिया को अपनी उदारता का नजारा पेश करते हैं. लेकिन मैं तो कूटनीतिक रिवाजों का लिहाज करता हूँ, दरअसल मन तो आपके परोसे शेम्पेन में ज्यादा लगता है और इस बहाने वैसा कुछ समझने की कोशिश होती है जो मेरे मुल्क के काम आये. हाँ !  इस रंगीन दावत और उसके बाद भी ऐसे नजर के चश्में की तलाश में रहता हूँ जिससे पूरी दुनिया को अमेरिकन निगाह से देख सकूं. किस तरह  इस खुशफहमी को बनाए रखने में हमारे साथ के मुल्कों को फ़ायदा है. और हाँ ...मिस्टर वाल्ट ! आपके चेहरे पर हर समय तारी रहने वाली ये ढाई इंच की मुस्कान इस सच्चाई को नहीं बदल सकती.

ओह... मिस एनी आप मिस्टर वोस्तोस्की की बातों को गंभीरता से नहीं लेना. इन रशियन के लिए आरगुमेंट करना सांस लेने जैसा है.

मिस्टर वाल्ट को अनसुना करते हुए मिस्टर वोस्तोस्की ने चेहरा फिर बायीं ओर घुमाकर मिस एनी से पूछा- आप तो साइकाटिस्ट है क्या सोचती इस बारे में ....

"मिस्टर वोस्तोस्की जब कोई इस किस्म की साफगोई से किसी खास मसले पर अपनी राय देता है तो दरअसल वह सामने वाले को अनावृत्त करने की कोशिश में खुद की सच्चाई बयान कर रहा होता है" ....ऐसा मेरा मानना है कहते हुए मिस एनी ने प्लेट पर रखी प्याज की एक परत उतारकर मुंह में रख लिया.


Wednesday, January 4, 2012


यहाँ भी इतना गुबार कि साफ़ नजर नहीं आता .....



                       भीड़ में से खास मशक्कत के बिना भीतर-बाहर करा देने वाले, कमिटी ऑफिस में बिठाकर चाय, पानी, ठंडा पूछते पिलाते हजार भर का दान दिलवा देने वाले, चढ़ावा अपनी पहचान की दूकान से इस स्पेशल ऑफर के साथ कि सामान सीधे चढ़ेगा फिर बिकने नहीं आएगा, खरीद कराने वाले , जूते ऐसी मुफ्त जगह पर जहाँ से जूते लेते समय सहज सेवाभाव की जगह कुछ पाने का तेवर दिखता हो, पर रखवाने वाले की मदद से वह बाहर निकला. सभी कामों के हिस्सेदार हो गये ऐसे "मददगार" को कृतग्य भाव से पांच सौ का नोट पकडाते देख आसपास मंडराते खुलेआम माँगने वालों में से एक महिला ने भी कुछ पाने की इच्छा से हाथ आगे बढ़ाया. तुरंत उस खादिम ने इस तरह माँगने वालों को उससे दूर करने में फिर मदद की. उसके चेहरे पर पहले अनदेखा करने फिर हिकारत के भाव जाहिर होने पर दूसरी महिला ने तपाक से कह दिया- "साहब उसके लिए पांच सौ का नोट और हमारे लिए कुछ नहीं...!" इस बात पर उसकी भृकुटी तिरछी हो....अहां..तिरछी नहीं दू कोणीय हो गयी. एक तो खुद की हरकत पर हैरत से. और दूसरी उसके लिए, अंदर जिससे मिलने आया था. पता नहीं इस जगह ऐसे आलम में भी इतना गुबार क्यों ..कि उसे साफ़ नजर नहीं आता और करीने से आँखों के कोर पोंछ लेने के बाद भी....मुझे भी.  


........वर्ष २०१२