Thursday, October 30, 2008

हेलो !!! कौन...! ...भावना दीदी ~~ !!

~~~~~~~~~~~~~~17 जून की सुबह भेड़ाघाट थाने में लम्हेटा गाँव का कोटवार दो तीन व्यक्तियों के साथ आया और मुंशी जी से को लम्हेटा घाट के पास एक लाश मिलने की सूचना देने लगा सुनकर थाने पर मौजूद थाना प्रभारी [ टीआई ] नरेश शर्मा ने उसे अपने कमरे में बुलाया जानकारी ली और सहायक स्टाफ के साथ वहां तत्काल रवाना होते हुए, वरिष्ठ अधिकारियों को फोन पर सूचित करते गए.

~~~~~~~~~~~~~~मौका-ये-वारदात का मुआइना करते हुए टी आई [ SHO] नरेश शर्मा ने अपने अनुभव से यह अंदाज लगा लिया कि नर्मदा नदी के इस कम आवाजाही वाले लम्हेटा घाट के, आश्रम वाले रोड के किनारे पड़ी हुई लाश अधिक पुरानी नहीं है. औंधे मुंह पड़ी हुई लाश का चेहरा जला हुआ था और सर के पीछे से आगे तक गहरे चोट थे..जिससे बहे खून के छींटे आस पास के पत्थरों पर भी दिख रहे थे. थोड़ी देर में DSP [ डीएसपी] भी घटनास्थल पर पहुंचे. घटनास्थल की बारीकी से निरीक्षण और निकटवर्ती क्षेत्र के सर्चिंग करने पर भी लाश के आसपास अपराध से सम्बंधित कोई भी साक्ष्य नहीं मिला था..सिवाय वहाँ मौजूद कुछ भौंचक चेहरे, माचिस की कुछ जली और अधजली तीलियों के.

~~~~~~~~~~~~~~DSP ने धुप के चश्में में आ गए धुल के कणों को साफ़ करते हुए टीआई से कहा- इसकी पहचान होना जरुरी है... ब्लाइंड मर्डर में लाश की शिनाख्तगी हो जाना ही मामले के आधे खुल जाने जैसा होता है. ठीक कहते हैं सर..! टीआई ने इत्मीनान के भाव चेहरे पर लाते हुए जवाब दिया. लाश को बारीकी से देखते हुये पंचनामा टीआई के निर्देशन में तैयार किया जा रहा था...एक अधेड़ उम्र का पुरूष जो करीब 50-55 साल का, गेंहुआ रंग, छरहरा बदन, औसत ऊंचाई..करीब 5.8 फ़ुट, बदन पर सफ़ेद बनियान जो खून और धूल-मिटटी से लाल मटमैले रंग का हो गया था, नीचे मेरून कलर का पेंट जिसमें काले रंग का पुराना सा बेल्ट बंधा था, शर्ट जो ग्रे कलर का था, बटन खुलकर चेहरा जलाने के उपक्रम में ऊपर का हिस्सा जल गया था, पहने हुआ था. अधजले बालों को देखने से स्पष्ट हो रहा था कि उसे मेहंदी से रंगा जाता रहा है..वो नीचे से सफ़ेद और ऊपर लाली लिये हुए अपनी कहानी ख़ुद बयाँ कर रहे थे.

~~~~~~~~~~~~~हालाँकि मौका-ए-वारदात लम्हेटा गाँव से कोई बहुत दूरी पर नहीं था, फ़िर भी यदि आसपास के किसी व्यक्ति की लाश होती तो वहाँ पर आये ग्रामीणों से से कोई न कोई, कुछ न कुछ पहचान का सूत्र दे देता. लाश और मौका-ए-वारदात पर ऐसे कोई निशानात भी नहीं थे, जिससे इस संदेह को बल मिलता कि हत्या कहीं और की जाकर लाश यहाँ डाल दी गई हो.. हाँ..! वहाँ पर किसी गाड़ी के टायर मार्क्स भी नजर नहीं आ रहे थे. जो इस बात को संदेह के घेरे में लाते. पंचायतनामा के साथ-साथ पहचान की कार्यवाही भी जारी रखी गई. जैसे पुलिस ने वहाँ पर अघोषित मुनादी करा दी थी कि जो कोई भी इस लाश के बारे जो कुछ भी जानता है बताने का कष्ट करें. DSP ने अज्ञात व्यक्ति के पंचनामा में विशेष सावधानी बरतने की हिदायत दी. फ़िर कहा -: शर्ट, पेंट, अंडरवियर की और बारीकी से तलाशी ली जाये. तलाशी में शर्ट की जेब से जले हुए कागजों के टुकड़े मिले, वही पेंट की जेब से कुछ सिक्के और करीब 200/- रुपये के करेंसी नोट मिले. पहचान के लिए कोई नाम, टेलीफोन नंबर, मोबाइल हैण्ड सेट नहीं मिल सका. शर्ट का उपरी हिस्से के जल जाने के कारण पेंट का टेलर मार्क [ आजकल निर्माता कंपनी का लेबल ] महत्वपूर्ण हो गया, उसे ध्यान से देखा गया. संयोग से पेंट में किसी स्थानीय निर्माता कंपनी "श्याम ट्रेडर्स" का लेबल लगा हुआ था. इसके बाद शरीर को भी बारीकी से देखने पर टेटू [गोदना] , पुरानी चोट का निशान, टीका, तिल या चेचक के दाग या निशान [ स्कार मार्क्स ] जैसे पहचान के सूत्र नहीं दिखे. सो पंचनामा में इन्हीं बातों का उल्लेख करते हुये, पहले डिस्ट्रिक्ट क्राइम ब्रांच और फ़िर शाम को निकलने वाले सारे अखबार और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को जानकारी दी गई...जो शाम को शहर और आसपास की सुर्खी भी बन गई.

~~~~~~~~~~~~~डीएसपी ने टीआई, FSL [ फोरेंसिक साइंस लैब ] के वैज्ञानिक और कुछ वरिष्ठ पुलिस स्टाफ के साथ चर्चा कर कुछ बिन्दु तय किए.

~~~~~~~~~~~~~लाश को पोस्टमार्टम के बाद मेडिकल कॉलेज जबलपुर के वातानुकूलित मरचुरी में शिनाख्तगी तक के लिए सुरक्षित रखा गया. शाम करीब 6.30 बजे टीआई के पास गढा निवासी रमेश पाण्डेय नामक व्यक्ति का फोन आया और उसने लाश के हुलिया के सम्बन्ध में जानकारी लेते हुये, विशेष रूप से उसके पहने पेंट के टेलर मार्क्स के सम्बन्ध में पूछा फ़िर उसे देखने की इच्छा व्यक्त की. थोडी देर में ही रमेश पाण्डेय अन्य लोगों को साथ लेकर जब लाश देखने मरचुरी में आया तो जैसे ही लाश पर से कपड़ा हटाया गया दूर से ही भावना पाण्डेय "....ये तो पापा हैं....!!!.." कहकर चीख पड़ी.

~~~~~~~~~~~~वो लाश जबलपुर के घने बसे रहवासी क्षेत्र गढा में लाल हवेली के मशहूर मालगुजार ओंकार प्रसाद शुक्ला की थी. शिनाख्तगी के बाद ह्त्या का रहस्य और गहराने लगा.....! इसी बीच वहां मौजूद DSP और टीआई तुंरत एक कोने में जाकर गुफ्तगू करने लगे.....~~~~~!!!

शेष.पढिये....... भाग- 2 में ....शीघ्र ही.

Tuesday, October 28, 2008

सुप्रकाश की खातिर जलते


तेरे आँगन की अंधियारी मेरे आँगन में भर देना
लेकिन इससे पहले साथी एक दीप चौखट धर देना...

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******** दीप पर्व की शुभकामनायें *********
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हमको खुशियाँ सहित सुहाती सबकी परम आजादी
लेकिन जाने क्यों भाती हैं उनको बस बरबादी


मानवता की सदा हिफाजत हमने चाहा
दानवता का उन्होंने है साथ निबाहा
करतूते इंसा के पद से नीचे उन्हें गिराती ...
लेकिन जाने क्यों भाती हैं उनको बस ..

हम अनेकता में भी एकता को जीते हैं
पीड़ित रहकर भी सबकी पीड़ा पीते हैं
नीति निभाने विवश धरा की परम्परा से आदी ...
लेकिन जाने क्यों भाती हैं उनको बस ..

रहें साथ सहृदय सुदृढ़ हो भाईचारा
विकसित मानवता में हो अस्तित्व हमारा
यह वसुधा परिजन है हमने की है सदा मुनादी ...
लेकिन जाने क्यों भाती हैं उनको बस ..

हम समता के साथ समन्वय को अपनाते
संस्कार श्रम संस्कृतियों के हमसे नाते
सुप्रकाश की खातिर जलते दीप-तेल बन बाती ...
लेकिन जाने क्यों भाती हैं उनको बस ..

रचियता....
सुकवि बुधराम यादव

Sunday, October 26, 2008

गीत तुम्हारे लिए मैं गा रहा हूँ ...

गीत तुम्हारे लिए मैं गा रहा हूँ
तुम सुनो या न सुनो मेरे साथी
मन की व्यथाएं तुम्हें सुना रहा हूँ

भावना की झोली में संजोयी हुई
उम्र भर की सारी उपलब्धियां
वेदनाएं शब्दों में ढलती हुई
पा रही हैं मुखर अभिव्यक्तियाँ
यूँ ठगे से क्यूँ खड़े हो राह में .....
चाहो तो बटोर लो लुटा रहा हूँ
गीत तुम्हारे लिए..........

चुरा गई उम्र का प्रभात कोई
शाम की सुनहरी सी लालिमा
यौवन की दहकती दोपहरी को
घेर रही निष्ठुर सी कालिमा
निशा का स्वरूप सच नहीं मालूम ......
घोर तिमिर को गले लगा रहा हूँ
गीत तुम्हारे लिए..........

कभी लगे गंभीर समुन्दर हूँ
ज्वार कामनाओं की चलती है
और कभी वह स्थिर तट बेबस
लहरें आकर जहाँ मचलती हैं
कब तक संवेदनाओं को पालूं ....
आहत हर पल होते जा रहा हूँ
गीत तुम्हारे लिए..........

कब तलक यूँ ही दर-बदर
अर्थहीन संज्ञा को पूजते
अपनी विवशता बयां करूँ साथी
हार रहा हूँ ख़ुद से जूझते
डर है मुझे तुम कहीं न खो जाओ ....
इसलिए अपना पता बता रहा हूँ
गीत तुम्हारे लिए..........

रचयिता .....
सुकवि बुधराम यादव

Thursday, October 23, 2008

ब्रेन मेपिंग और नार्को टेस्ट....!!!

.............................देश के अग्रणी मानसिक स्वास्थ्य संस्थान "नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसेस" के निदेशक की अगुआई में बनी विभिन्न विषयों के विशेषज्ञों की छः सदस्यीय कमेटी ने ब्रेन मेपिंग के सन्दर्भ में अपने जिन निष्कर्षों का खुलासा किया है, वह काफी अहमियत रखते हैं......आइये देखते आज के समय में सर्वाधिक चर्चित टेस्ट की हकीक़त और फ़साना क्या है..!!!..............................उपरोक्त कमेटी में देश के अन्य अग्रणी संस्थानों के बिहेविरियल एंड कोगनिटिव साइंस, साइको फार्माकोलाजी, साइकिआत्री, फोरेंसिक साइंस जैसे अहम् विषयों के जानकार शामिल थे, जिन्होंने ब्रेन मेपिंग के बारे में अपने अध्ययन को अंजाम दिया. सभी जानते हैं कि आपराधिक घटनाओं में या आतंकी कार्रवाइयों में संलिप्तता की पड़ताल करने के लिए इन दिनों नार्को परीक्षण के साथ-साथ ब्रेन मेपिंग परीक्षण का बोलबाला भी बढ़ा है. ब्रेन मेपिंग में अभियुक्त को कंप्यूटर से जुडा एक हेलमेट पहनाया जाता है. जिसमें कई सेंसर और इलेक्ट्रोनिक उपकरण लगे होते हैं. फ़िर जाँच अधिकारी एवम फोरेंसिक विशेषज्ञ की मौजूदगी में उसे अपराध से जुड़ी तस्वीरें दिखाई जाती है. इसे देखकर अभियुक्त के दिमाग में उठी हलचलों की इलेक्ट्रिकल फिजिओलाजिकल गतिविधियों का विश्लेषण किया जाता है. अपराध विज्ञान में उपकरण के तौर पर काम करने के लिए एक ऐसी प्रक्रिया की जरुरत होती है जिसमें ग़लत होने की संभावना समाहित हो. बंगलौर और गांधीनगर आदि स्थानों पर जहाँ यह परीक्षण किया जाता है, क्या वहाँ इस कारक को मद्देनजर रखा गया है ?
................................वैसे सिर्फ़ ब्रेन मेपिंग नहीं अपितु नार्को टेस्ट की वैज्ञानिकता पर भी बहुत पहले सवाल खड़े किए जा चुके है. यह जानना भी दिलचस्प है कि अपने यहाँ भले ही नार्को टेस्ट लोगों को नया नजर आता हो, विकसित देशों में तो वह वर्ष 1922 में मुख्यधारा का हिस्सा बना था जब राबर्ट हाउस नामक टेक्सास के डॉक्टर ने स्कोपोलामिन नामक ड्रग का दो कैदियों पर प्रयोग किया था. दरअसल नार्को एनालिसिस टेस्ट एक फोरेंसिक टेस्ट है, जिसे टेस्ट जाँच अधिकारी, मनोवैज्ञानिक, डॉक्टर और फोरेंसिक एक्सपर्ट की मौजूदगी में अंजाम दिया जाता है. इसमे संदिग्ध व्यक्ति को सोडियम पेंताथेल नामक केमिकल का इंजेक्शन दिया जाता है. जिससे न केवल वह अर्ध बेहोशी की हालत में चला जाता है बल्कि उसकी तर्क बुद्धि / रिजिनिंग भी ख़तम हो जाती है. और फ़िर उससे सवाल पूछ कर जानकारी उगलवाई जाती है. वह व्यक्ति जो एक तरह से सम्मोहन अवस्था में चला जाता है वह अपनी तरफ़ से ज्यादा कुछ बोलने की स्थिति में नहीं होता बल्कि पूछे गए कुछ सवालों के बारे में कुछ बता सकता है. जो लोग यह मानते है कि नार्को टेस्ट में व्यक्ति हमेशा सच ही उगलता है, दरअसल उस अवस्था में भी वह झूठ बोल सकता है, विशेषज्ञों को भरमा सकता है.
................................जहाँ विकसित दुनिया के बाकी हिस्सों ने ऐसे टेस्ट को इन्वेस्टीगेशन से मुख्य रूप से पृथक कर दिया हो, ज्यादातर डेमोक्रेट दुनिया जिनमे अमेरिका और ब्रिटेन भी शामिल हैं, वहाँ ऐसे टेस्ट कुछ समय से लुप्त प्राय जैसे हैं जबकि हमारे देश में ऐसे टेस्ट की लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है. किसी अपराध के संदिग्ध को पकड़ते ही लोग उसके नार्को टेस्ट की मांग करने लगते हैं कि इनका अगर नार्को टेस्ट हो जाए तो सच्चाई उगल ही देंगे. संविधान का एक अहम् तत्त्व है article - 20[3] जो कहता है कि "किसी व्यक्ति को जिस पर कोई आरोप लगे हैं, उसे अपने खिलाफ गवाह के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जाएगा." अगर नार्को टेस्ट की बुनियादी अंतर्वस्तु को समझाने की कोशिश करेंगे तो इसके जरिये व्यक्ति को एक तरह से अपने खिलाफ गवाह के तौर पर इस्तेमाल किए जाने की संभावना रहती है. लेकिन विगत कुछ निर्णयों में माननीय न्यायालयों के द्वारा टेस्ट के पक्ष में मत दिया गया है.

.................................इसमें कोई दो राय नहीं कि नार्को टेस्ट में कोई व्यक्ति कुछ भी प्रलाप करे या कबूल करे. अपराध को साबित करने के लिए प्रमाणों की आवश्यकता होती ही है . टेस्ट से प्राप्त जानकारी को विवेचना में अन्य सूत्रों से कोरोबोरेट करने और सुसंगत बनाने के लिए उपयोग किया जाता रहा है. अभियुक्त को दवा पिलाकर उससे जानकारी लेने की इस कोशिश को चेन्नई एवम मुंबई हाईकोर्ट ने "यातना के श्रेणी" में रखने से मना किया और ऐसा तर्क दिया कि अभियुक्त को भले ही उसकी इच्छा के विरुद्ध प्रयोगशाला में ले जाया जाए, लेकिन टेस्ट के दौरान वह जो बात प्रगट करे, वे स्वैच्छिक हो सकती है. .................................वर्ष 2000 में तत्कालीन सरकार की सदारत में आपराधिक न्याय प्रणाली को सुधारने के लिए जो मलिमथ कमेटी बनी थी उसके जरिये कानून में सकारात्मक परिवर्तन की यही कोशिश हम देख सकते है. दरअसल नार्को टेस्ट को लेकर अमेरिकी गुप्तचर एजेन्सी सीआईए, जिसने शीत युद्ध के दौर में इसे आजमाकर सच उगलवाने की खूब कोशिश की थी, के अनुभव बहुत उत्साहजनक नहीं थे. उपरोक्त कमेटी ने भी अपने अध्ययन में इन नार्को टेस्ट को लेकर अवैज्ञानिक और सबूतों के तौर पर इस्तेमाल पर रोक लगाने की अनुसंशा की है. अतएव मामला अब कानून निर्माता सरकार, इन्वेस्टीगेशन एजेन्सी और न्यायालय के बीच है.....कि इस चर्चित अपराध अनुसंधान परीक्षण को किस रूप में उपयोगी बनाये रखा जाये.

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Tuesday, October 21, 2008

शहीद पुलिस

शायद शीर्षक पढ़कर अनेक लोगों को विश्वास ही नहीं होगा....होना भी नहीं चाहिए. ये तो 21 अक्टूबर "शहीद दिवस" हर साल मनाते हैं, इसलिए 'पुलिस' के साथ 'शहीद' लिख दिया.


पुलिस शहीद हो नहीं सकती, कैसे होगी जो समाज में व्याप्त सभी बुराइयों से वास्ता रखती है. उसके मृत्यु को शहीद का दर्जा दे भी तो कैसे.....???

@ जो भर्ती तो करती है ऊंचे आदर्शों और मानदंडों के साथ लेकिन यह छूट जातें हैं... प्रशिक्षण काल में ही.
@ जो अभी भी उन्हीं प्रशिक्षण तकनीक और उपकरणों को उपयोग कर जवान तैयार कर रही है जो वर्षों पहले [ जिसे तकियाकलाम में अंग्रेज जमाना या 1865 माडल कहतें हैं ] नकार दिए गये हैं.
@ जिस एजेन्सी की संख्या बल रोज बढती जनसंख्या और अपराध के अनुपात में हास्यास्पद अंक यथा नगण्य तक है. [ पुलिस में अक्सर इसे हौसला अफजाई के जुमले के रूप में इस्तेमाल किया जाता है कि एक सिपाही पूरे गाँव को हड़का आएगा और एक थानेदार अपने इलाके का मालिक होता है ] पर अब हकीकत क्या है, चैतन्य होती जनता संग अपराधी समझने लगी है.
@ जो सूचना देने पर [ ख़ुद से पाने पर नहीं भई ] भी अपने आधुनिक वेशभूषा, वाहन, उपकरण और अस्त्र-शस्त्र के साथ घटना स्थल पर सायरन बजाते मुंबई फिल्मों की तरह नाटकीय रूप से कई घंटों बाद पहुंचती है.
@ जो बिना अपशब्द के बात और बिना तरलता के काम नहीं करती है.
@ जो आम से दूर होकर सदैव ख़ास के पास की ड्यूटी करती है.@ जो 24 घंटे में कोई काम के घंटे तय न होने पर भी लगातार ड्यूटी करती है.
@ जिसमें एक ही जवान सफ़ेद वस्त्रधारियों की सुरक्षा, अपराध विवेचना, पतासाजी, धर पकड़ से लेकर मण्डी-मेले और ट्रैफिक की व्यवस्था सब में पारंगत होने जैसे कर लेता हो.
@ जो भ्रष्टाचार के इंडेक्स में 17 वें क्रमांक पर है, [ पहले 16 के बारे में आपको मालुम होगा, शायद..? ]
@ जिसके काम करने पर कभी-कभार यह कह दिया जाता है, कि ठीक है !!! यह तो उसका काम ही है. और बिगड़ने पर दूसरों की अकर्मण्यता का ठीकरा भी अक्सर उस पर ही फूटता हो.
@ जिसके फील्ड पर ड्यूटी करने वाले 55-60 साल के कांस्टेबल/ हेड कांस्टेबल भी जवान कहलाते हैं. सो काम भी जवानों की तरह करने पड़ते हैं.
@ जिसके 80 प्रतिशत कार्यकारी एवं पर्यवेक्षण अधिकारी अभी भी कंप्यूटर निरक्षर हैं. इस पर अनेक प्रशिक्षण कार्यक्रम और नए पुलिस उपयोगी सॉफ्टवेर उपयोग कर हार जाने के बाद.
@ जिससे हम अनुशासित भारतीय नागरिकों के बीच कार्य करते हुए सदभावना, सद्व्यहार और दयालुता की उम्मीद हमेशा पश्चिमी पुलिस की क्षमता और तत्परता के साथ की जाती है. [ एक प्रसंग : एक.....ट्रैफिक पुलिस ने एक बाइक सवार को वाहन के आवश्यक कागजात चेक करने को रोका, वह बड़ी हिकारत वाली मुद्रा बनाकर रुका क्योंकि अन्य लोग भी रोके जा रहे थे, फ़िर उसने आवश्यक जांच से पहले ही अपने सेल फोन से किसी को कॉल मिलाकर पुलिस को पकड़ा दिया,... पुलिस वाला खीसें निपोर कर तत्काल उसे जाने के लिए कहता है....| दूसरा....फ़िर भी दस्तावेज चेक कर 50/- रुपये जुर्माना राशि जमा करने कहता है, किंतु वह बाइक सवार विशेष नागरिक अपने सेल फोन का लगभग 100/- कई विशेषाधिकारियों को फोन लगाने में खर्च कर बिना जुर्माने की रकम अदा किए वहाँ से जाने में सफल हो जाता है.]
@ जिसके पास कानूनी अधिकार ही होता है, क्योंकि वह जिनके लिए काम करती है, केवल उनका मानव अधिकार होता है.

अरे कहाँ भूल-भुलैया में रह गया .........!!!!
फ़िर भी इस वर्ष- 2007-2008 के दौरान एक वर्ष की अवधि में 3000 से अधिक पुलिस जवान शहीद * हुए. जिनकी याद-सम्मान में आज 21 अक्टूबर को पुलिस शहीद दिवस मानती है. आखिर क्यों ? और क्यों ?......????
{ *शहीद-- याने की ड्यूटी के दौरान अपने कर्तव्य निभाते मृत्यु. }
उन सभी कर्तव्यनिष्ठ जांबांज शहीद पुलिस को मेरा सादर नमन....सेल्यूट .<

Monday, October 20, 2008

डीएनए टेस्ट का राज [भाग - दो]


पिछले अंक में.....
जहाँ से आगे जाने पर भौंचक कर देने वाली बात सामने आने वाली है. क्या था राजू के गायब होने का राज ??, क्या भूरा भी गायब था ? या फरार ?? या फ़िर जिन्दा ही नहीं..??? भूरा ने क्या कहा अपने , राजू , प्रताप और तथाकथित प्रेयसी समलिया के बारे में. समलिया ने अभी तक क्या छुपाया था !! और क्या सही बताया था !!! क्या पुलिस विवेचना के अनसुलझे रहस्य से परदा हटाने के कगार पर थी या अभी तक रहस्य के बियाबान में ही विचरण कर रही थी. अब आगे ..

..........................कचनारी निवासी समलिया अपने ही पड़ोस में रहने वाले भूरा सिंह से पिछले तीन वर्षों से प्यार करती रही है. बालिग होने के बाद उसने अपनी और भूरा की शादी का प्रस्ताव पिता रूपसिंह के समक्ष रखा लेकिन उन्होंने गोत्र का मिलान न होने का बहाना करते हुए उसे खारिज कर दिया. समलिया ने यह बात भूरा सिंह से बताई तो उसने कहीं अन्यत्र जाकर शादी कर लेने की बात कही. पर समलिया का परिवार गाँव का प्रतिष्ठित परिवार होने और समलिया के छोटी बहिन और भाई की अभी शादी नहीं होने के कारण समलिया ने इंकार कर दिया.

............................समलिया और भूरा इस सब के बाद भी एक होने के लिए सोचने लगे और बहुत विचार करने के बाद एक संगीन योजना पर पहुंचे. योजना के अनुसार समलिया परिवार की सहमति से विवाह के लिए तैयार हो गई. और अब केवल शादी का इंतजार हो रहा था. कुछ माह बाद समलिया की शादी उचेहरा गाँव के राजू से हो गई और राजू उसे ब्याह कर ले गया. समलिया ससुराल पहुँची और उसने अपने सुहाग के साथ सपने संजोने के बजाय योजना के अमल की राह देखना शुरू कर दी. वह ससुराल में एकदम सामान्य थी, जो भी मांगलिक परम्पराएँ और औपचारिकताएं पूरी हो रही थीं, वह उसमें एक नव विवाहिता के रूप में सहर्ष सम्मिलित थी.

............................योजना की पहली कड़ी शुरू हुई 15 मई को, प्रताप के पहुँचने के साथ. भूरा ने अपनी योजना में प्रताप को भी साथ लिया था. मूलतः डिंडोरी जिले के शहपुरा थाना अंतर्गत स्थित ददर गाँव निवासी प्रताप सिंह के नाना-नानी कचनारी में रहते हैं और यहाँ आते-जाते उसकी दोस्ती भूरा से हो गई थी. प्रताप योजना के अनुसार समलिया के ससुराल कचनारी पहुँचा और वहाँ से लौटते हुए राजू को भी साथ ले लिया. दोनों कुंडम पहुंचकर एक होटल में चाय-नाश्ता किए फ़िर प्रताप ने राजू से अपने घर चलने का आग्रह किया. पहले तो राजू ने मना किया लेकिन प्रताप की बनावटी प्यार भरी जिद के कारण वह तैयार हो गया.

............................एक साइकिल पर सवार होकर दोनों कुंडम से गजरा टोला जाने वाले मार्ग पर स्थित सुपावारा तिराहा पहुंचे थे कि वहां भूरा खड़ा दिखाई दे गया. भूरा ने आवाज लगाई तो प्रताप ने साइकिल रोकी और भूरा का परिचय राजू से दोस्त के रूप में कराया. फ़िर तीनों एक ही साइकिल पर सवार होकर आगे चल पड़े. साइकिल को भूरा चलने लगा, राजू को आगे और प्रताप को पीछे बिठा लिया. साइकिल चलती गई और जैसे ही ग्राम सकरी के काराघाट के समीप पहुँची थी, तभी भूरा ने राजू के गले में एक फंदा [ accilarator वाइर का फंदा बनाया गया था ] डाल दिया. फंदा डालते ही राजू का गला दब गया और उसके छटपटाने से तीनो साइकिल सहित नीचे गिर गए. इसके बाद योजना के अनुसार भूरा और प्रताप ने राजू को संभलने का कोई मौका दिए बिना उसका गला घोंट दिया और वहीं मेड़ पर एक गड्ढा खोद कर उसे दफ़न कर दिया. इस समय रात के करीब 8 बज चुके थे. भूरा अपने योजना और मकसद की पहली किश्त में कामयाब हो गया था..और इसके बाद दोनों अलग-अलग अपने गाँव के लिए रवाना हो गए.

...........................पुलिस की हिरासत में आने के बाद भूरा सिंह, प्रताप सिंह और समलिया ने जिस तरह गुमराह करने की कोशिश की थी, इसलिए पुलिस ने उनके बताये तथ्यों की पुष्टि के लिए उस स्थान को भूरा और प्रताप की निशादेही पर उनसे ही खुदवाया. वहां से बरामद मानव हड्डियों, जो कि कथित रूप से राजू की थीं, को विज्ञान के सर्वाधिक विश्वसनीय परीक्षणों में से एक से सुनिश्चित करने के लिए जबलपुर जिले में पहली बार डीएनए परीक्षण कराने हेतु राजू की बहन रुकमणि का खून का नमूना [ सैम्पल ] लेकर CFSL हैदराबाद के CDFD UNIT को भेजा .जहाँ से प्राप्त रपट मानव हड्डी होना, उसके अस्थि मज्जा एवम दांतों के डीएनए की प्रोफाइलिंग रुकमणि के खून के प्रोफालिंग से एक ही रक्त जीन के वाहक होने के पुष्टि ने, जबलपुर पुलिस के सीने में सफलता का एक तमगा और जड़ दिया. तीनो आरोपियों को गिरफ्तार कर उनके विरुद्ध अभियोग पत्र न्यायलय में प्रस्तुत किया जा चुका है.


क्या है डीएनए टेस्ट....!
" जबलपुर जिले में यह पहला केस है, जिसमे अपराध की विवेचना में डीएनए [ डी आक्सी राइबो नुक्लिक असिड ] टेस्ट का सहारा लिया गया. पुलिस ने आरोपियों के निशादेही पर मौका ए वारदात से जप्त की गई मृतक राजू की हड्डियों की डीएनए प्रोफाइलिंग टेस्ट के लिए सेंट्रल फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरी के अधीन CDFD हैदराबाद भेजा गया. पुलिस ने इसकी सैम्पल मेचिंग के लिए मृतक राजू की सगी बहन रुक्मणि के खून का नमूना लिया, जो हैदराबाद भेजा गया था. उच्च स्तर के तकनीक परिक्षण से गुजर कर जब डीएनए टेस्ट की रिपोर्ट पाजिटिव आई तो जबलपुर पुलिस ने अपनी कार्यक्षमता के विस्तृत श्रंखला में सफलता की एक और कड़ी जोड़ ली. "

इस केस के अलहदा होने के कई कारण थे जिनमे प्रमुख रूप से ........

@. दुल्हन का विवाह के तत्काल बाद अपनी महत्वाकाँक्षा को अमलीजामा पहनाने की सोच. नई नवेली दुल्हन के रूप में अपनी पारंपरिक भूमिका को अद्भुत नाटकीय रूप में सहजता से निभाना.
@. प्रताप का चचेरे भाई के रूप में आना और सहजता से अपनी मूल पहचान छुपाते हुए दुल्हे को गाँव से बाहर निकाल ले जाना.
@. दुल्हन के द्वारा नाटकीय रूप से प्रताप को चचेरे भाई के रूप में नए ससुराल में स्वीकार करा लेना और पति का विश्वास भी हासिल कर लेना.
@. पुलिस को घटना के बाद की पूछताछ में समलिया द्वारा स्वयं को पीड़ित साबित करते हुए अधिकतम समय तक गुमराह करते रहना..इसके लिए उसने न केवल नव विवाहिता होने अपितु कई बार महिला होने को कवच के रूप में इस्तेमाल किया.
@. प्राथमिक विवेचना का कीमती समय और साक्ष्य को अपने मायके और आरोपियों के गाँव से पुलिस को दूर रखकर नष्ट करने की योजना में भी समलिया और प्रताप, भूरा सफल रहे थे.
@. मूल घटना स्थल पर पहुँचने से पहले न जाने कितने ठिकाने और कितने गड्ढे पुलिस को सर्च करने पड़े जो आरोपियों के शातिराना मिजाज का सबूत था.
@. मूल घटना स्थल पर पहुँचने के बाद भी जो साक्ष्य मिल रहे थे, उसके सम्बन्ध में भी पर्याप्त संदेह पैदा कर देना कि आखिर यह भी सत्य है अथवा नहीं. इसके लिए पुलिस ने ख़ुद को दूर रखकर आरोपियों से ही स्थान विशेष की खुदाई करवाई .उसका फोटोग्राफ एवम videograpy भी करायी. ताकि साक्ष्य के रूप में इस पूरी प्रक्रिया को न्यायालय के समक्ष लाया जा सके.

Saturday, October 18, 2008

डीएनए टेस्ट का राज ? [भाग - एक]


" यूँ तो बाबुल का घर छोड़ पिया के घर जाने वाली हर लड़की के ढेरों सपने होते हैं. और डोली में बैठते ही वह इन्हें साकार करने का ताना-बाना बुनने लगती है. पर समलिया इन लड़कियों से एकदम अलग निकली, उसने तो डोली में बैठते ही अपने सपने को साकार करने का नया ही तरीका अख़तियार करने का संकल्प ले लिया...!!!! "

डीएनए प्रोफाइलिंग विज्ञान के उन सबसे विश्वसनीय परीक्षणों में है, जिसकी सत्यता अरबों में एक त्रुटि ही होने की संभावना के कारण न्यायालय द्वारा विशेषज्ञ अभिमत के रूप में निर्विवाद स्वीकार किया जाता है. इसके लिए सेम्पलिंग, नमूना संरक्षण और परीक्षण कराना विवेचना एजेन्सी की कार्यदक्षता को पहले ही कड़े कसौटी से गुजारा जाना होता है.

..........................17 मई की सुबह कुंडम के उचेहरा गाँव निवासी कुशराम परिवार के लिए बड़ी ही परेशानी भरी थी. परिवार का इकलौता नौजवान और नव विवाहित युवक राजू बीते रोज से ही गायब हो गया था. आपसी रिश्तेदारों व अन्य परिवार वालों ने काफी पतासाजी की लेकिन उन्हें कहीं कोई सफलता हाथ नहीं लगी थी. परेशान होकर कुशराम परिवार के मुखिया फूलसिंह कुशराम तथा उसके छोटे भाई दलसिंह कुशराम ने कुंडम पुलिस थाने में रिपोर्ट दर्ज करायी. रिपोर्ट में फूलसिंह कुशराम ने कुंडम थाना प्रभारी [SHO] को बताया कि उसके पुत्र राजू सिंह कुशराम का विवाह 14 मई को मझगवां थाना के कचनारी गाँव के 19 वर्षीया समलिया के साथ हुआ था. शादी के दूसरे दिन 15 मई राजू के परिवार में सब कुछ सामान्य से हटकर था. चौतरफा खुशियों का दौर चल रहा था. गाँव के परिवेश में जैसा होता है, उससे कहीं बढ़-चढ़कर कुशराम परिवार में हो रहा था. शाम के वक्त एक अजनबी युवक वहाँ आया जिसने अपने आप को नई नवेली दुल्हन समलिया का चचेरा भाई प्रताप सिंह बताया. राजू के परिवार जनों ने उसे बैठाया, शादी वाले घर में सबके बीच समय गुजरते जैसे देर ही नहीं लगती, बातों ही बातों में रात हो गई और फ़िर भोजन का दौर शुरू हो गया. भोजन के बाद प्रताप वापस अपने गाँव जाने की कहने लगा लेकिन घरवालों के रात रुक जाने का अनुनय करने पर प्रताप ने चार पहर वहीं बिताया. दूसरे दिन यानि 16 मई को दोपहर बाद प्रताप को छोड़ने राजू भी साथ निकला था और तब से वह वापिस नहीं लौटा.


..........................पुलिस थाने में इस शिकायत को गुम इन्सान रजिस्टर में दर्ज कर समूचे जिले की पुलिस को वाइरलेस सेट से तत्काल सूचना दे दी गई. राजू का कहीं कोई पता नहीं चला, किसी थाने से कोई राहत की ख़बर न मिली. पुलिस ने पहले तो इसे एक सामान्य अनुक्रम की घटना मानकर तफ़्तीश शुरू की, जैसा कि अमूमन इस तरह कहीं अचानक काम आ जाने से चले जाने और रुकने वाले लोग दूसरे-तीसरे दिन वापस घर आ जाते है. लेकिन जब लगातार पाँच दिन तक उसका कोई पता नहीं चला तो पुलिस और राजू के परिजनों की चिंता बढ़ती चली गई. उप पुलिस अधीक्षक ने मामले की अपने स्तर पर समीक्षा की और केस में अभी तक के जाँच में आये तथ्यों को बारीकी से जोड़ना शुरू किया. केस के कुछ महत्वपूर्ण सूत्र और व्यक्ति की भूमिका संदेह से परे नजर नहीं आती देख उन पर ही विवेचना को केंद्रित कर, मुखबिर भी पतासाजी के लिए लगा दिये गये. अलग टास्क देकर पुलिस की दो टीम बना दी गई. एक टीम राजू के परिजनों, दोस्तों और नई नवेली दुल्हन समलिया से पूछताछ में लग गई तो दूसरी टीम का ध्यान राजू के चचेरे साले प्रताप जो कि घटना क्रम का अन्तिम साक्षी था, पर केंद्रित था.


............................प्रताप के बारे में पता करने के लिए पुलिस टीम जब मझगवां थाने के गाँव कचनारी पहुँचा तो वहाँ बताया गया कि इस नाम का कोई व्यक्ति उस गाँव और आस पास है ही नहीं. प्रताप द्वारा अपना पता ग़लत बताये जाने को लेकर पुलिस के शक की सुई घुमने लगी. पुलिस ने समलिया से आकर उसके बारे में पूछताछ की, पर समलिया से भी प्रताप के बारे में कोई महत्वपूर्ण जानकारी हासिल नहीं हो सकी. DSP के निर्देशन में काम कर रही टीम ने अपना दायरा उचेहरा गाँव से लगे हुए आसपास के क्षेत्रों तक बढ़ा लिया और राजू, समलिया, प्रताप के जीवन चर्या का खाका खींचा जाने लगा. दूसरी टीम को ख़बर मिली कि कुछ लोगों ने राजू को एक नहीं दो आदमियों के साथ देखा था और दोनों आदमी बाहरी लग रहे थे. तीनो एक ही साइकिल पर सवार इत्मीनान से बातचीत करते ददर गाँव डिंडोरी रोड की तरफ़ जा रहे थे. पुलिस की पड़ताल में रोज एक नई जानकारी, तो कई शिगुफ़े जुड़ने लगे. इन्हें जरुरत के मुताबिक छंटाई की जाती रही.

...........................इसी बीच चरित्र सत्यापन में लगी टीम ने DSP को चौकाने वाली जानकारी दी कि दुल्हनिया समलिया का किसी भूरा नाम के लड़के के साथ लगाव होने की बात गाँव के लोग दबी छुपी कह रहे हैं. यह बात मुखबिरों ने तस्दीक भी कर दी. कहानी में आये नये पात्र को बिना देरी किए पुलिस ने पूछताछ के लिए बुला लिया, लेकिन इस कदम से पुलिस को भी यकीन नहीं था कि वह अब इस मामलें के उस छोर पर पहुँच गई. जहाँ से आगे जाने पर भौंचक कर देने वाली बात सामने आने वाली है.
क्या था राजू के गायब होने का राज ??, क्या प्रताप भी गायब था ? या फरार ?? या फ़िर जिन्दा ही नहीं..??? भूरा ने क्या कहा अपने , राजू , प्रताप और तथाकथित प्रेयसी समलिया के बारे में. समलिया ने अभी तक क्या छुपाया था !! और क्या सही बताया था !!! क्या पुलिस विवेचना के अनसुलझे रहस्य से परदा हटाने के कगार पर थी या अभी तक रहस्य के बियाबान में ही विचरण कर रही थी.
शेष "विवेचना लेख" पढ़ें आगामी अंक भाग - दो में.

Tuesday, October 14, 2008

टिपियाने का मतबल....गिनती बढ़ाना और हक़ पाना है क्या..???



इसे लिखने हेतु प्रेरणा स्त्रोत हैं सम्मानीय समीर जी और नीशू जी
पहले उन्हें अभिवादन !! फ़िर टिपियाना शुरू.......


ब्लॉग लेखन की दुनिया में टिप्पणी को इतना महत्त्व आख़िर क्यों मिला ? इसका मूल कारण है. ब्लॉग में विसिटर्स की पहचान और संख्या याने ट्रैफिक का सही जानकारी नहीं हो पाना है. हम अपनी पोस्ट रचना पर सुधी ब्लागर्स के टीप की अधीरता मय व्यग्रता से प्रतीक्षा इसीलिए करते हैं कि उस रचना के सम्बन्ध में लोगों की राय क्या है.

लेकिन यह भी सोचने का विषय है कि किसी भी क्रिया, प्रतिक्रिया और उसको लिखने, पढ़ने वाले कि कोई सीमा है कि नहीं. व्यक्ति विशेष की पठन पाठन, पसंद, नेट कनेक्शन की गति, ब्लागर के मति की गति, समय और फ़िर ब्लॉग अथवा ब्लागर विशेष से लगाव ......और पता नहीं कितने ऐसे कारक हैं, जिनसे किसी पोस्ट विशेष पर टिप्पणी लेखन निर्भर करता है. यह शिकायत आम है कि बहुत सुंदर, उम्दा, बढ़िया, आभार, धन्यवाद, जारी रहें से उस वक्त लिख रहे टिप्पणीकर्ता के अतिरिक्त सभी को एलर्जी है..सभी चाहते हैं कि वह लिखे या न लिखे लेकिन उसके पोस्ट पर विस्तृत, विश्लेषणात्मक, भावनात्मक टिप्पणी जरुर लिखी जाये. पर यह सम्भव है या नहीं यही तो चर्चा का विषय है, और इंशा-अल्लाह आगे भी बना रहेगा.

अब इस पर ज्ञान, सलाह तो यह भी दी जायेगी कि " भईया अजीरण होते तक न पढिये...के टीपे करने लायक न रह जाए. वैसे तो " .टिप्पणियों को अनेक प्रकारों में विभक्त किया जा सकता है....एक वो जो सबको भाती है, दूसरी वो जो ठीक लगती है पोस्टकर्ता और अन्य टीपाकारों को, तीसरी वो जो केवल टीपाकार को ही ठीक लगती है कि हाजिरी लग गई अब हक़ बन गया हमारा इन पर, एवम पोस्टकर्ता को गिनती बढ़ने का संबल देती और चौथी वो चेहरा छुपाये टीप जो स्वयं टीपाकार को टीस देती है और शेष को तो एलर्जिक जैसी ही होती है. टीप पर अनूप जी से प्रेरणा लेना श्रेयस्कर होगा जो अनेक टीपकारों के गुरु समान हो सकते हैं..एक लाइना में जो ब्लॉग का विषयवस्तु , शीर्षक का अवलोकन कर तुकांत कटार जैसी टीप देते हैं, वह न केवल संबंधित ब्लागर को अपितु अन्य विचरणकर्ता को भी वहां विसीट करने, न करने का मार्ग प्रशस्त कर देता है. क्या इस तरह की सारगर्भित टीप किसी भी ब्लोगर को अस्वीकार होगी. हो भी सकती है भइया...."'एक लाइना" कई बार केवल पोस्ट की लिंक बतौर ही होती है क्योंकि पोस्ट का शीर्षक पढ़कर तुकांत टीप लिख देना आप से अपेक्षित नहीं होता है. पर "चिठ्ठा चर्चा" का उद्येश्य पृथक होने से यह टीप की श्रेणी में आता है या नहीं यह भी चर्चा का विषय है."

मज़बूरी में अजीरण का रोग कई लोगों ने लगा रखा है..कोई निर्धारित.समय न होने का, नेट पर लगातार बैठकर शेष कार्यों से दूर होने का और फ़िर बचे हुए समय में रचनाओं के सम्बन्ध में सोचकर थकने का.

एक खास बात पर भी खूब मानसिक द्वंद और बहस होती है बल्कि कुछ ब्लागर ने बाकायदा "टिप्पणी चौकोर' के ऊपर उनकी आगत टीपाकार से क्या अपेक्षाएं है संकेत रूप में लिख रखा है. बाबा भावनाओं को समझो और वैसे ही टिपियाओ. कुछ ने निरापद होने और कुछ ने टीप को ही सबकुछ मान लेने जैसा भी संकेत किया हुआ है लेकिन एक अदद टिप्पणी कि चाह तो .....तो है.

लेकिन अपेक्षाओं की बयार इतनी दबाव लिए होती है कि टीप करनी ही है तो फ़िर सहज-सुलभ मार्ग तो अपनाया जायेगा ही. टिप्पणी को जब तक ब्लॉग में उपस्थिति के द्योतक के रूप में प्रतिष्टा मिली रहेगी यह प्रश्न बार-बार सभी ब्लागर बंधुओं के विचार में कौंधता रहेगा. इसलिए मेरा तकनीकी रूप से विशेषज्ञ ब्लागर भाइयों...रवि रतलामी , संजय बेंगानी, पंकज जी, श्रीश जी, समीर जी एवम अनेक....अन्य से निवेदन है कि वह ब्लॉग विसिटर्स की संख्या एवम उनके पहचान हेतु कोई तकनीक उपलब्ध हो तो कृपया हम सबको बतायें या न हो तो अविलम्ब उपलब्धता के लिए प्रयास करें.

फिलहाल यहीं तक, वैसे तो टिप्पणी पुराण बहुत जगह दे रही है, मुझे कुछ भी टिपियाने की. लेकिन मुझे लग रहा है कि इतना लिखने पर ही मुझे बहुत से टीप मिल जायेंगे. तो लालच बुरी बला से सराबोर यह टिप्पणी यही पर ख़तम .

टिप्पणी पर कभी फ़िर "टिपियाया" जायेगा....इसके लिए जरुरी है आप सब इस पर अच्छी टीप जरुर टिपिया दें . बिना टिपियाये या टिपिया के चलते न बने......वरना एक और झेलाऊ पोस्ट के लिए फ़िर तैयार रहिएगा.
.हा हा....हा....!

Monday, October 13, 2008

लाश ने दिया सुराग






जानकार बताते हैं कि आदमी अक्सर झूठ बोलते हैं, लेकिन मुर्दा कभी झूठ नहीं बोलता. यह बात कोई माने या न माने पुरवा गाँव के सैकंडों लोग मान चुके हैं. जैसा लोकार्दो कहते हैं...." शातिर अपराधी भी जहाँ अपराध करता है, उस स्थान पर कुछ न कुछ छोड़ता है या ले जाता है.." .जिसे कानून की भाषा में सबूत कहते हैं. लेकिन इस रहस्यमय कहानी में मुर्दा ही घटना स्थल से अपने हत्यारों का सुराग ले आया. बात है बरेला थाने जबलपुर से करीब २० किलोमीटर दूर स्थित पुरवा गाँव की जहाँ सडांध मारती एक लाश के पता चलते ही हड़कंप मच गया. पुलिस को लाश के कपड़ों में एक ऐसा सुराग हाथ लगा कि मात्र दो घंटे में ह्त्या के सभी आरोपी गिरफ्त में आ गए. वह सुराग था.......????










मौके पर क्या देखा ...पुलिस और फोरेंसिक विशेषज्ञ की टीम ने.

@ लाश के पश्चिम और करीब ५० मीटर दूरी पर खेत को बारबेट वायर से घेरा गया था, जहाँ दो खम्बों के बीच वायर कुछ उलझे हुए थे. उसी स्थान से खेतों के बीच एक पगडण्डी भी थी. मृतक के शर्ट का पिछला हिस्सा फटा था.
@ जमीन पर पड़े निशान और लाश को बारीकी से देखने पर समझ आ रहा था कि लाश को करीब ४० फीट खींच कर लाया गया था.
@ मृतक के गले में कुछ डोरियाँ सी उभरी थीं , जिससे लग रहा था कि उस पर कुछ दबाव डाला गया होगा.
@ मृतक के अंडरवियर में चने का भूसा लगा था, जबकि पास के खेत में गेहूं की फसल लगी थी और आसपास कही भी चने के भूसे का नामो-निशान नहीं था.
@ फोरेंसिक विशेषज्ञ ने बताया लाश "मेगेट्स स्टेज" में है जो मृत्यु के बाद लगभग 48-72 घंटे के बाद की स्थिति होती है.





बरेला थाने के गाँव पुरवा के बाहर एक फार्म हाउस से लगे बंजर भूमि पर एक अज्ञात लाश की सूचना थाने के फ़ोन पर मिलते ही थाना प्रभारी K.S. मलिक झुंझलायें और तत्काल अपने उप पुलिस अधीक्षक को इसकी ख़बर से अवगत कराया और थाने से गाँव की ओर रवाना होने के लिए फोर्स को क्लोस होने की हिदायत दिये. डी एस पी ने तात्कालिक जानकारी से पुलिस अधीक्षक मकरंद देउस्कर को सूचित कर उनके निर्देशानुसार फोरेंसिक विशेषज्ञ की टीम के साथ घटना स्थल के लिए रवानगी डाल दी.

उधर इंस्पेक्टर मलिक पुरवा के नजदीक पहुंचे ही थे कि उनके मोबाइल की घंटी बज उठी. गाँव के एक व्यक्ति ने बताया कि मौके पर भारी भीड़ जमा हो गई है और स्थिति बिगड़ने वाली है. लोग तरह तरह कि बातें कर रहे हैं . ड्राईवर ने जीप की गति बढ़ाई और कुछ ही देर में इंस्पेक्टर मलिक मौके पर पहुँच गए. घटनास्थल पर गाँव वालों का हुजूम लगा हुआ था आशंका के कारण लोग आक्रोशित हो रहे थे. इंसपेक्टर मलिक ने गाँव के कुछ जिम्मेदार लोगों को पास बुलाया और उन्हें सहयोग करने का निवेदन किया तब कुछ लोगों ने पुलिस का अपने मतलब से साथ देने हेतु आक्रोशित लोगों को शांत कराने की कोशिश करने लगे. लाश से आ रही दुर्गन्ध के कारण कोई उसके करीब जाने का साहस नही कर पा रहे थे. पुलिस को देख कुछ भले लोगों का हौसला बढ़ा और लोग लाश को करीब जाकर देखने लगे.

लाश कि पहचान होते ही लोगों की ऑंखें फटी की फटी रह गई और कई असमय आए पसीना पोछने लगे. अचानक किसी ने कहा ......अरे ! ये तो गाँव का ही "गुड्डा" है. २१ साल के गबरू जवान का क्या हाल हो गया ? इसकी तो न किसी से दुश्मनी भी नहीं थी और न ही बेअदबी . कुछ ही देर में फोरेंसिक एक्सपर्ट्स के साथ DSP भी घटनास्थल पर पहुँच गए. दोनों टीम ने गुड्डा उर्फ़ सुमरत की लाश और घटनास्थल का बारीकी से मुआइना करना शुरू किया. फोरेंसिक एक्सपर्ट ने बताया लाश में जो कीड़े लगे हैं उसे विज्ञानं की भाषा में "मेगेट्स स्टेज" कहते हैं. जो मृत्यु के 48-72 घंटे में शरीर में लगते हैं. यानि लाश तीन-चार दिन पुरानी थी . पंचनामा तैयार कर शव को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया.

लाश में देखी गई बारीकियों को DSP और फोरेंसिक एक्सपर्ट्स ने विवेचना के बिन्दु तय कर विश्लेषण करना शुरू किया और इंस्पेक्टर मलिक ने निर्देश के मुताबिक आस पास के एरिया की सर्चिंग करनी शुरू की और वहां खड़े लोगों में सुमरत के करीबी लोगों से बिना देरी किए उसकी आदतों, रहन-सहन, उठक-बैठक, और घर-परिवार, रिश्तेदार के सम्बन्ध में जानकारी लेकर नोट कर लिया.

पतासाजी में जुट चुकी पुलिस टीम को कुछ अहम् सुरागों का कनेक्शन जुड़ने के साथ ही थाने से जानकारी लेने पर पता चला कि गुड्डा उर्फ़ सुमरत की पिछली शाम को ही गुमशुदगी दर्ज करायी गई है. और पूर्वा गाँव से ही करीब सप्ताह भर पहले किसी छेदीलाल ने खेत से नोजल और मोटर चोरी हो जाने की जाँच के लिए दरख्वास्त दिया था. पतासाज टीम को तीन अलग-अलग टास्क के लिए तीन दिशाओं में रवाना किया गया, जों क्रमशः पहली टीम फॉर्म हाउस जो घटना स्थल से लगा हुआ था, वहां पहुंचकर चने के भूसे का पता लगाये क्योंकि लाश के अंडरवियर में वही भूसा लगा हुआ था और पुलिस को कोटवार ने बताया कि फॉर्म हाउस के खलिहान में चने का भूसा भरा हुआ है. इसलिए फॉर्म हाउस जाने वाली टीम को हिदायत दी गई कि वह पहले उस स्थल को सुरक्षित करे, फ़िर वहाँ मौजूद लोगों को लेकर थाने आए., दूसरी टीम सालीबाडा गाँव, जहाँ फार्म हाउस का मालिक संजू उर्फ़ संजीव खत्री का मकान था. तीसरी टीम गुड्डा के घर की ओर चली गई. DSP स्वयं घटनास्थल पर भौतिक, रासायनिक और मौखिक साक्ष्यों का विश्लेषण करने के बाद थाने के लिए रवाना हो गए.

पहली टीम ने फॉर्म हाउस में दबिश दी और वहाँ चने के भूसे को उठाकर अन्यत्र रखे जाने के साक्ष्य दिखने पर उसे सुरक्षित कर वहाँ मौजूद अस्सू उर्फ़ आशीष विश्वकर्मा और छेदीलाल गोंड़ को पूछताछ के लिए बरेला थाने ले आए. अस्सू और छेदीलाल फॉर्म हाउस में नौकरी करते थे. पूछताछ के दौरान दोनों ने सभी सवालों के जवाब बड़े साहस और विश्वास से देकर पुलिस की चिंता की लकीरें गहरी कर दी, दोनों बिना उलझे पुलिस के सभी सवालों का जवाब देते रहे. इस बीच DSP ने अस्सू से उसका सेल फ़ोन लेकर उसके डिटेल्स और पिछले एक हफ्ते के लोकेशंस के सम्बन्ध में जानकारी एकत्र करनी शुरू कर दी.

अधिकारियों ने अस्सू से पूछा कि संजू फॉर्म हाउस कब से नहीं आया...अस्सू जो कि फॉर्म हाउस का मेनेजर का काम देखता था, ने बताया करीब 3-4 दिनों से संजू नहीं आया है, न ही उससे कोई बात हुई है. लेकिन अस्सू की मोबाइल डिटेल्स से पता चल रहा था कि वह संजू से लगातार संपर्क में था. दो दिन पहले ही बरेला में देवी जागरण में संजू आया था, लेकिन अस्सू इससे पहले ही इनकार कर चुका था. पुलिस ने पासा फेंका और कहा कि उसके पास प्रमाण है कि संजू देवी जागरण में आया था बस फ़िर क्या था, अस्सू और छेदीलाल पसीना पसीना हो गए, कमरे का तापमान अचानक बढ़ा हुआ सा लगने लगा. पूछताछ में लगी टीम ने थोड़ी हिकमत अमली दिखाई तो अस्सू ने सब सच बताने का वचन दे दिया. इसी बीच, दूसरी टीम सालीबादा से संजू उर्फ़ संजीव खत्री को लेकर आ गई. आते ही DSP ने उसका मोबाइल अपने कब्जे में लेते हुए अभी तक आए डिटेल्स को सत्यापित करना शुरू किया ही था कि थाने में संजू ने जब अस्सू और छेदीलाल को देखा और नजरें मिलाते ही वह सूखे पत्ते की तरह कांपने लगा.

तीनो को बताया गया कि चने का भूसा अंडरवियर में लगा हुआ था और तुम्हारे फॉर्म हाउस के खलिहान में भी मिला है, लेकिन दोनों जगहों भूसे को एक ही तरह से साफ करने की असफल कोशिश की गई है. जों गेहूं के खेत से गिरते हुए लाश तक एक ट्रेक बना रही है. तीनो को बात समझ तो आ ही रही थी, उन्होंने राज उगलना शुरू किया तो उसकी सडांध लाश से भी ज्यादा आने लगी कि एक आदमी के जान की कीमत क्या 1500/- के "नोजल" [पानी सींचने के काम आने वाला छोटा सा उपकरण जो पीतल का बना होता है ] से भी कम है. तीनो की बातों से जो हत्या की कहानी निकलकर आई, वह कुछ इस तरह थी कि .............

"........ पिछले कुछ समय से सालीबाडा निवासी संजीव खत्री उर्फ़ संजू के पुरवा गाँव से लगे फॉर्म हाउस में चोरी की घटनाएँ होने लगी थी. इसके ईलाज के लिए फॉर्म हाउस के मालिक संजू और मेनेजर अस्सू ने ख़ुद की व्यवस्था बना ली और जब 7 अप्रैल की रात करीब दस बजे सुमरत शराब के नशे में फॉर्म हाउस के बाउंड्री के पास मिला, तो उन्हें उसी पर चोरी का संदेह हुआ. और उससे वे पूछताछ करने लगे. इधर संजू ने भी छूट दे रखी थी कि फॉर्म हाउस में चोरों पर नजर रखो और पकड़े जाने पर जम कर सबक सिखाओ....आखिर रईसी कहाँ जाकर छुपती और जों कहाँ से न निकलती. सुमरत से अजय यादव उर्फ़ कोकले , अस्सू उर्फ़ आशीष और छेदीलाल ने फॉर्म हाउस के पास घूमने का कारण पूछा . जवाब उनके माकूल न था. सुमरत भी जब निर्दोष था तो उसने जवाब न देकर पूछताछ पर ही सवाल उठाना शुरू कर दिया. यह बात अजय, "जो सुमरत की उमर का ही उसका साथी ही था..फर्क इतना की वह जी हुजूरी कर संजू का करीबी हो गया था और अक्सर संजू के साथ उसके ऐश्वर्य का जूठन झोकते जबलपुर, दिल्ली और मुंबई की सैर भी कर आता था." को नागवार गुजारी उसने सुमरत के गले में हाथ की जंजीर डाल दी और छेदी और अस्सू ने उसे पीटना शुरू कर दिया. कुछ ही देर में सुमरत लस्त पड़ गया. और तीनो ने उसे मार्च- अप्रैल की रात में फॉर्म हाउस में ही खुले आसमान के नीचे छोड़ दिया.

जब सुबह 4 बजे छेदी फसल में पानी दिलवाने के लिए उठा तो उसने देखा, सुमरत अभी वहीं पड़ा है. उसने पास जाकर देखा और दो लात मारकर उठाने की कोशिश की. लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी ...सुमरत के बदन पर पानी और झिंझोड़ने का कोई असर न होते देख छेदी ने अस्सू को उठाया और सारी बात बताई. ख़बर मालिक संजू तक पहुंचाई गई जो तुंरत फॉर्म हाउस पर आया और लाश को ठिकाने लगाने की योजना बनाने लगे. " देखो अभी दिन में कुछ भी करना ठीक नहीं होगा जो होगा रात में, अभी इसे खलिहान में रखे चने की भूसे में दबाकर रख दो . मै रात में आता हूँ " ..कहकर संजू चला गया. रात हुई तो अस्सू और संजू के निर्देशन में अजय और छेदी सुमरत की लाश लेकर पैदल निकल पड़े. लाश लेकर चलते खौफ और सावधानी बरतने के कारण रौशनी का उपयोग नहीं कर रहे थे. जब कंधे पर जवान लाश हो तो अच्छे अच्छों की हिम्मत पस्त हो जाती है. आपाधापी में फॉर्म हाउस में लगे कंटीले तार इनमें से किसी को दिखा नहीं और सुमरत की मृत देह छेदी के कंधे से फिसलकर बारबेट वायर के दूसरी ओर जा गिरी. तार में फंसकर सुमरत की शर्ट भी फट गई. तीनो लाश को दूर ले जाकर ठिकाने लगाना चाहते थे लेकिन किस्मत और बारबेट के कन्टीलें तार में उलझ कर रही सही हिम्मत भी खो बैठे और वही से उलटे पैर फॉर्म हाउस लौट कर दुबक गए.

दूसरे दिन संजू फॉर्म हाउस फ़िर आया और उसने तीनो को डांटने लगा कि लाश इतनी नजदीक क्यों फेंका . उसे ठीक ढंग से ठिकाने लगाओ. उस रात अस्सू , अजय और छेदी फ़िर से हिम्मत जुटाकर निकल पड़े और लाश को किसी तरह बाउंड्री से 40 फीट दूर ही घसीट सके. लाश को दुबारा ठिकाने लगाने के बाद अजय दिल्ली का कोई काम निकालकर गाँव से भाग गया. और बाकी दो अपने काम में रमने का प्रयास करने लगे. लेकिन कहा है न खून सर चढ़कर बोलता है. लाश ख़राब हुई गंध फैली और उसमे मौजूद सबूत ने कानून के हाथ इनके गिरेबां तक पहुँचा दिए. चारो आरोपियों को गिरफ्तार कर उनके विरुद्ध चालान न्यायालय पेश किया जा चुका है....... "





Friday, October 10, 2008

चालान की प्रति और करोड़ों का खेल





जबलपुर ही नहीं वरन समूचे मध्यप्रदेश में "चालान" की प्रति के नाम पर लाखों- करोड़ों रुपये के भ्रष्टाचार का खुला खेल वर्षों से चल रहा है. किसी भी आपराधिक प्रकरण में जल्द न्याय हो इसके लिए न्यायालय में समय से चालान पेश होने की महत्ता अपने आप में काफी महत्वपूर्ण है . कानून निर्माताओं ने दंड प्रक्रिया संहिता में ऐसे प्रावधान किये हैं कि आपराधिक प्रकरण में प्रत्येक आरोपी को चालान एवम उसमे संलग्न पुलिस के दस्तावेजों की निःशुल्क प्रतिलिपि अनिवार्य रूप से उपलब्ध कराई जाए. अनुशासन की दुहाई देने वाले पुलिस विभाग के वरिष्ठ अधिकारी इस बात पर चुप्पी साधे बैठे हैं कि आरोपी को चालान की प्रतिलिपि उपलब्ध कराना किसकी जिम्मेदारी है. वहीं न्यायालय में चालान पेश करने की जिम्मेदारी का निर्वहन करने वाला पुलिस कर्मचारी नासूर बन चुकी ऐसी पीड़ा झेल रहा है जिसे वह खुलकर व्यक्त भी नहीं कर सकता. दरअसल विभाग के इन्हीं कर्मचारियों पर जिम्मेदारी थोप दी जाती है कि वे आरोपी को चालान व पुलिस के दस्तावेजों की प्रतिलिपि उपलब्ध कराये. मध्यप्रदेश शासन पुलिस विभाग को दस्तावेजों की फोटोकॉपी के लिए पृथक से कोई भी बजट उपलब्ध नहीं करता है और यदि ऐसे में समस्त दस्तावेजों की फोटोकॉपी के लिए पुलिस कर्मी आरोपी से रुपये की मांग करता है तो सीधे सीधे दंड प्रक्रिया की धारा 207 में बनाये गए कानून का उल्लंघन होता है. यदि ये पुलिस कर्मी कानून का पालन करता है तो फोटोकॉपी ले लिए उसे अपनी जेब ढीली करनी पड़ती है जो अप्रत्यक्ष रूप से भ्रष्टाचार का प्रमुख कारण बनता है.






दृश्य एक


..........चोरी के एक मामले में पुलिस ने १० लोगों के खिलाफ विवेचना में सबूत जुटाये और प्रकरण न्यायालय में प्रस्तुत करने की स्थिति बनी. मामले की विवेचना करने वाले पुलिस कर्मी की धड़कने उस वक्त बढ़ने लगी जब आरोपियों को सैकड़ों पन्नों के दस्तावेजों की फोटोकॉपी देने का समय आया . पुलिस कर्मी ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 207 का पालन नहीं किया और कानून का भय दिखाकर आरोपियों से फोटोकॉपी के पैसे वसूल लिए . खास बात यह है कि पुलिस कर्मी ने आरोपियों से फोटोकॉपी में खर्च होने वाली राशि की तुलना में कुछ ज्यादा ही पैसे वसूल लिए.



दृश्य दो


........... एक आपराधिक प्रकरण में नियम कानून जानने वाले कुछ आरोपी या कह ले रसूखदार आरोपी इस बात पर अड़ गये कि चालान की फोटोकॉपी के पैसे वे नहीं देंगे . चालान पेश करने वाला पुलिस कर्मी चिंता में पड़ गया कि तकरीबन दो हजार रुपयों का इंतजाम कहाँ से किया जाए . पुलिस कर्मी ने आधिकारियों से मदद मांगी तो उसे कोई राहत नहीं मिली, किसी तरह manage करने की बात कह कर टाल दिया गया. इस मामले में पुलिस कर्मी को अपनी जेब से ही फोटोकॉपी कराने कि नौबत आ गई, तो जाहिर है वह अपनी जेब से थोड़े ही फोटोकॉपी कराएगा.





क्या कहता है....पुलिस मेनुअल और CrPC

मध्यप्रदेश पुलिस मेनुअल एवम रेगुलेशन एक्ट कंडिका [ पेरा ] - 524 में न्यायालय अर्दली के कर्तव्यों को स्पष्ट किया गया है. रेगुलेशन के मुताबिक "तेज बुद्धि का आरक्षक" जो ठीक से लिखने और पढ़ने योग्य हो, दंडाधिकारी और उसके प्रत्येक सहायक के न्यायालय में अर्दली के रूप में पदस्थ किया जायेगा. वह दंडाधिकारी का व्यक्तिगत अर्दली नहीं है और न ही दंडाधिकारी के न्यायालय के लिपिकीय कार्य के स्टाफ को भारमुक्त करने के लिए आशयित है. वह पुलिस अभियोजक के नियंत्रण में है, जो यह देखने के लिए जिम्मेदार है कि वह [ अर्दली ] अपने कर्तव्यों को दक्षतापूर्वक करता है. वह कार्यालयीन समय में न्यायालय में उपस्थित होगा और उसके कर्तव्यों में निम्नलिखित समावेश होगा...

१. व्यवस्था बनाये रखना
२. अभियुक्त की सुरक्षित अभिरक्षा
३. हिन्दी समन्स एवम वारंट लिखना एवम जारी करना
४. न्यायालय में अपने बचत समय में मामलों की डायरी के बयानों की नक़ल करने में सहायता करना जो बचाव पक्ष के उपयोग के लिए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 162 के अंतर्गत आवश्यक है.


..... दंड प्रक्रिया संहिता 1973

अभियुक्त को पुलिस रिपोर्ट या अन्य दस्तावेजों की नक़ल प्रतिलिपि देना
धारा 207 - किसी ऐसे मामले में जहाँ कारवाई पुलिस रिपोर्ट के आधार पर संस्थित की गई है, मजिस्ट्रेट निम्लिखित में से प्रत्येक के एक प्रतिलिपि अभियुक्त को अविलम्ब निःशुल्क देगा

१. पुलिस रिपोर्ट
२. धारा 154 की अधीन लेखबद्ध की गई प्रथम इत्तिला रिपोर्ट [ FIR ]
३. धारा 161 की उपधारा [3] के अधीन अभिलिखित उन सभी व्यक्तियों के कथन , उनमें से किसी ऐसे भाग को छोड़कर जिनको ऐसे छोड़ने के लिए निवेदन की धारा 173 की उपधारा [6] के अधीन पुलिस अधिकारी द्वारा किया गया है.
४. धारा 164 के अधीन लेखबद्ध की गई संस्विकृतियाँ या कथन , यदि कोई हों .
५. कोई अन्य दस्तावेज या उसका सुसंगत उद्धरण जो धारा 173 की उपधारा [5] के अधीन पुलिस रिपोर्ट के साथ मजिस्ट्रेट को भेजी गई है.




अभियोग पत्र या चार्ज शीट जिसे सामान्य भाषा में " चालान " कहा जाता है. पुलिस के द्वारा किसी भी अपराध की विवेचना में आरोप सिद्ध पाए जाने ऐ उपरांत आरोपियों के विरुद्ध विचारण हेतु न्यायालय में प्रस्तुत किया जाता है .

भारतीय कानून व्यवस्था में समस्त भारतीय नागरिकों को एक समान दर्जा दिया गया है. चाहे वह किसी मामले में आरोपी ही क्यों न हो..? और जब तक उसके विरुद्ध अपराध सिद्ध न हो जाये, उसे एक सामान्य नागरिक होने के रूप में समस्त अधिकार प्राप्त होते हैं. इसके लिए आरोपी जिसके विरुद्ध पुलिस में प्रथम सूचना रिपोर्ट [FIR] दर्ज करायी जाती है. उस अपराध की विवेचना में आरोप सिद्ध पाए पर साक्ष्य एकत्र कर विवेचक उसे गिरफ्तार करता है. जमानतीय मामलों में आरोपी को जमानत दे दी जाती है, तथा अजमानतीय मामलों में उसे न्यायिक अभिरक्षा में भेज दिया जाता है. फ़िर विवेचना पूर्ण होने पर उसके खिलाफ अभियोग पत्र प्रस्तुत किया जाता है.

आरोपी के रूप में नामजद व्यक्ति के नैसर्गिक, संवैधानिक और कानूनी अधिकार का संरक्षण करने हेतु दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 207 के अंतर्गत उल्लेखित किया गया है कि किसी ऐसे मामलें में जहाँ कार्रवाई पुलिस रिपोर्ट के आधार पर संस्थित की गई हो, उसे चालान की प्रतिलिपि निःशुल्क उपलब्ध कराया जाना चाहिए.

जानकार कहते हैं कि कभी-कभी मध्यप्रदेश पुलिस मेनुअल एवं रेगुलेशन एक्ट पर 524 का हवाला दे दिया जाता है, जो कि ग़लत तर्क है. दरअसल पुलिस की तरफ़ से कार्य में लगे न्यायालय अर्दली को सामान्य व्यवस्था, अभियुक्त की सुरक्षित अभिरक्षा, हिन्दी समन्स, वारंट्स लिखने और जारी करने के कार्य से मिले बचत समय में जो मामलों की डायरी से बयानों की नक़ल करने में सहायता की , जो एक लाइन लिख दी गई है, उसके आधार पर पुलिस ने शायद अपना अधिकार ही मान लिया है. जबकि पुलिस रेगुलेशन में यह आदेश उस ज़माने का है जब न फोटोकॉपी मशीन थीं, न ही typewritter का चलन आम था.

पुलिस विभाग में इस प्रावधान को अलग-अलग लोगों ने अपनी तरह से परिभाषित कर लिया और नफा-नुकसान के खेल में लिप्त हो गए. चालान की कॉपी कराने का दर भी पृथक-पृथक तय किया गया है. स्वाभाविक है , न्यायालय अर्दली जैसी जगह जहाँ कुछ न हो, वहां लहरें तो गिनना पड़ेगा !!! इस सम्बन्ध में यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि पुलिस विभाग या शासन स्तर पर किसी अन्य माध्यम से चालान की कॉपी कराकर एक नक़ल प्रति मुलजिम [बचाव पक्ष] को देने के लिए कोई फंड की व्यवस्था नहीं है, न ही कोई बिल स्वीकृति करने का प्रावधान है, फ़िर भी चालान की कॉपियाँ तो हो रही हैं और काम भी चल रहा है. आख़िर ये कॉपियाँ हो कैसे रही हैं ? रुपये कहाँ से आते हैं ?? कितना खर्च हो रहा है ??? यह विचारणीय है.

इस क्षेत्र में जो होशियार है वो तो वर्षों से चालान ड्यूटी कर रहे हैं और जिन्हें कॉपी कराने का कार्य manage करना नहीं आता वो ड्यूटी लगते ही कहने लगते हैं, चालान कैसे पेश हो पायेगा ? मैं कहाँ से कराऊंगा कॉपियाँ , लेकिन परम्परा है तो निभानी पड़ेगी की तर्ज पर वह भी कार्य करता जाता है. शायद अपने वेतन के रुपयों से कॉपियाँ कराकर या फ़िर कोई और रास्ता अपनाने के लिए वह भी मजबूर हो जाता है. परिणाम स्वरुप भ्रष्टाचार का व्यवस्था के स्तर पर खुलेआम स्वीकृति देना और इस पर कोई स्पष्ट दिशा निर्देश जारी न कर , बढावा देने की बात साफ जाहिर होती है. पुलिस जिसकी छवि आमतौर पर ठीक नहीं कही जाती है, उसके विरुद्ध यह और भी नकारात्मक है और व्यवस्था भी इस न्याय-अन्याय कि लड़ाई में चालान की निशुल्क प्रति की तरफ़ बेसुध है. निशुल्क न्याय देना की नीति का हश्र इन गरीबों की कटती जेबों से दिखाई दे जाता है. यह एक ऐसा गोरखधंधा बन चुका है जिसमें लाखों-करोड़ों का खेल हर महीने हो रहा है और किसी के कानो में जूं तक नहीं रेंग रही है.



न्याय में विलंब


पुलिस की विवेचना और साक्ष्य जुटाने के तरीकों के बारे में वैसे भी अच्छी धारणा नहीं है. विवेचना के दौरान पुलिस अभियोजन के लिए यथासंभव साक्ष्य जुटा कर अनेक व्यक्तियों के खिलाफ न्यायालय में चालान प्रस्तुत करती है. तब ऐसे में वे व्यक्ति जो अपने को बेगुनाह साबित करना चाहते हैं, उनके लिए एक मात्र रास्ता न्यायालय से न्याय पाने का रह जाता है. जिसके लिए जरुरी है कि चालान समय पर न्यायालय में समय पर प्रस्तुत हो जाये, किंतु आर्थिक कारणों से यदि चालान की प्रतिलिपि के लिए वह पैसे नहीं जुटा पाता है तो चालान न्यायालय में समय से पेश नही हो पाता है. इस स्थिति में व्यक्ति को न्याय पाने के लिए पता नहीं और कितने दिन इंतजार करना पड़ता है. एक मामले में माननीय उच्चतम न्यायलय में साध्वी ऋतंभरा के खिलाफ दायर याचिका में सम्बंधित शासन [अभियोजन पक्ष] को साध्वी के आवेदन पर उस जनसभा के ऑडियो और विडियो केसेट की प्रतिलिपियाँ उपलब्ध कराने को मान्य किया था. और सम्बंधित न्याय के केसेट्स की प्रतिलिपियाँ तैयार करने के लिए अस्वीकृति को उचित नहीं माना था.

यह व्यवस्था जो किसी भी कारण से चल रही है, उसमें पुलिस के पास कोई निर्धारित फंड कि व्यवस्था नहीं जबकि वह अभियोजन पक्ष के रूप में है...? शासकीय अभियोजक जो न्याय के लिए अभियोजन पक्ष की और से पैरवी करता है. और जिसके नियंत्रण एवम मातहत जो अर्दली कार्यरत है उनकी भूमिका....? और व्यवस्था में इस तरह के अदृश्य रूप में चल रहे कार्यों पर नजर एवम अंकुश हेतु जो विजिलेंस गठित है, उसके कार्य विचारनीय है ???

और आप भी विचार कर सकते है !!!



जवाब किसी के पास नहीं ..?????


जानकारों का कहना है कि चालान की फोटोकॉपी के नाम पर समूचे मध्यप्रदेश में हर साल करोड़ों रुपये आरोपी या फरियादी की जेब से वसूल कर संबंधितों [ पुलिस एवम अन्य ] द्वारा करोड़ों खुलेआम भ्रष्टाचार किया जा रहा है . यदि उदाहरण के रूप में देखा जाए तो जबलपुर जिले में यदि साल भर में सिर्फ़ दस हजार आपराधिक प्रकरणों का दर्ज होना तथा प्रत्येक मामले में सिर्फ़ दो लोगों को आरोपी बनाया जाना मान लिया जाये तो करीब एक करोड़ रुपये का भ्रष्टाचार आशंकित है. कई आपराधिक प्रकरणों में तो पुलिस दस्तावेजों व चालान की प्रतियाँ की संख्या सैकड़ों में होती है . फ़िर भी प्रत्येक चालान की प्रतिलिपि में सिर्फ़ पॉँच सौ रूपये का अनुमानित खर्च मान लिया जाये तो आंकड़ा करीब एक करोड़ रुपये तक पहुँच जाता है. बात यदि प्रत्येक जिले में इतने ही आपराधिक मामलों की जाए तो पैंतालिस जिलों के हिसाब से राशि ४५ करोड़ रपये हो जाती है. इतनी बड़ी रकम आती कहाँ से है इसका उत्तर किसी के पास नही है....?????

जानकारी साथी रामकृष्ण परमहंस पाण्डेय से साभार

Friday, October 3, 2008

और अधिक मौन न रहा जाये

आज के अवसर पर एक प्रासंगिक रचना प्रस्तुत है...



बात हटकर कोई कहा जाये
और अधिक मौन न रहा जाये


सार सच कह गये फकीरों ने
बाकी सब रह गये लकीरों में
खोलकर अब उन्हें पढ़ा जाए...
और अधिक न रहा जाये


कैसे अपना वतन सँवारोगे
जब ना ख़ुद की चलन सुधारोगे
गाँधी गौतम किसे गढा जाये...
और अधिक मौन न रहा जाये


अपना उस धर्म से सुदृढ़ नाता
विश्व बंधुत्व है जो सिखलाता
आओ उन सिरफिरों को समझायें ...
और अधिक मौन न रहा जाये


कहने से है अधिक सही सुनना
सुनने से है अधिक सही गुनना
यह मिथक कुछ यहाँ ढहा जाए...
और अधिक मौन न रहा जाये
बात हटकर कोई कहा जाये


रचियता.....
सुकवि बुधराम यादव
बिलासपुर