Friday, April 29, 2011

गाँव कहाँ सोरियावत हें..भाग-3

इस अंक में गाँव कहाँ सोरियावत हें से सुकवि बुधराम यादव की लम्बी कविता का प्रथम भाग प्रस्तुत है. छत्तीसगढ़ी के सुधि पाठकों के लिए कुछ शब्दों के हिंदी अर्थ को भी इस भाग के अंत में स्थान दिया गया है ताकि कविता का पूरे भाव से रसास्वादन किया जाए.


गठरी सब छरियावत हें

देखते देखत अब गांव गियाँ
सब शहर कती ओरियावत हें!
कलपत कोयली बिलपत मैना
मोर गाँव कहाँ सोरियावत हें!
ओ सुवा ददरिया करमा अउ
फागुन के  फाग नंदावत हे
ओ चंदैनी ढोला-मारू
भरथरी भजन बिसरांवत हे!


 डोकरी दाई के  जनउला*
कहनी किस्सा आनी बानी!
ओ सुखवंतिन के  चौरा अउ
आल्हा रमायन पंडवानी!
तरिया नदिया कुंवाँ बवली के
पानी असन अटावत हें!

सुकुवा* ऊवत नींद भर रतिहा
अउ कुकरा बासत भिनसरहा
अब पनिहारिन गगरी* मांजय
न बहरी बाजय मुंधियरहा*!
उठ नवा बहुरिया घर लीपय
 न गोबर हेरंय लछमैतीन !
ढेंकी* मूसर के  आरो तो
बिन सूने गुजर गय कइयो दिन!
अब खोर गली छर्रा-छिटका*
न अंगना गोबर लिपावत हे!

अमली-चटनी आमा-चानी
भाटा-खोइला* सुकसा-भाजी*!
बंडी पोलखा के  लेन देन
ओ हाट-बाट खउवा-खाजी!
बर पीपर पिकरी* चार जाम
बन बोइर तेंदू अउ औंरा!
चर्रा गिल्ली डंडा फुगड़ी
सब बिसरागंय बांटी भौंरा!
अब नवा जिनिस मन ऊपरागंय
जुन्ना* जमो तरियावत* हें!

अब अधरतिहा दौंरी फांदय
न पंगपंगात* नागर साजंय
जतवा* कहुं बाजय घरर घरर
न दही मथावय घमर घमर!
पहुना परमेसर नइ मानय
गीता रमायन नइ जानय!
न किंजरय फेरी गली गली
न सरेखंय अब हली भली !
जुग भर के  जोरे मया पिरीत
के  गठरी सब छरियावत हे!

ओ खेतवरिया के  रूखुवा म
रेरा चिरइया के  खोंधरा*!
रूंधे बांधे बारी बखरी
पाके  सुार जोंधरी जोंधरा!
ओ हरेली के  गेंड़ी अउ
पोरा के  नंदी जंतुलिया!
बिहाव के  सिंघहा-झांपी* अउ
नोनी के  नानुक  झंपुलिया*
करसा करी के  लाड़ू संग
अब बतासा बिसरावत हें!

ओ तरिया तीर नदिया खंड़ म
कुहक त फुदकत बइठे कोयली!
ओ घाघर तितुर के  तुर तुर
अउ मैना के  अइंठे बोली!
पड़की  के  घुटरब* घुटुर घुटुर
अउ कठखोलवा के  खटर खटर!
खंचवा* कस आँखी खुसरा के
घुवा के  बड़का  बटर बटर!
ओसरी पारी सब गाँव छोड़
डोंगरी पहरी बर जावत हें!

भूखन घर बाबू के  छट्ठी
दुखिया घर के  ओ अतमैती* !
बर पीपर अउ लीम छइहाँ तरि
गुड़ी म बइठे पंचयती!
उन पंच कहाँ परमेसर कस
अब तो बछवा कस अदरा* हें।
कहे बर छांटे-निमेरे
पन सिरतो बदरा-बदरा हें!
लरहा मरहा तक  पद पाके
रतिहा भर म हरियावत हें!

अब मरघटिया अउ गौचर का
धरसा* म धांन बोवावत हे!
गउठान बिना कोठा भीतर
गरूवा बछरू बोमियावत* हें!
जेती देखव बेजा कब्‍जा
रस्ता अउ डगर छेंकाये हें।
सब पाप पोटारे बइठे हें
पुन कौंड़ी असन फेंकाये हें!
लोटा धर बाहिर जाये बर
माई मन बड़ सकुचावत हें!

जुन्ना दइहनही म जब ले
दारूभट्ठी होटल खुलगे!
टूरा टनका  मन बहकत हें
सब चाल चरित्‍तर  ल भुलगें!
मुख दरवाजा म लिखाये
हावय पंचयती राज जिहाँ।
चतवारे* खातिर चतुरा मन
नइ आवत हावंय बाज उहाँ!
गुरतुर भाखा सपना हो गय
सब कॉंव कॉंव नरियावत हें!

*हिन्‍दी अरथ - जनउला : पहेली बुझाना,  सुकुवा : शुक्रतारा,  गघरी : पानी का घड़ा,  मुंधरिहा : भोर का  समय,  ढेंकी : पैर से अनाज कूटने हेतु लकड़ी का  उपकरण,  छर्रा-छिटका : छिड़कना,  भांटा-खोइला : धूप में सुखाए गए कटे हुए भटे के  टुकड़े,  सुकसा-भाजी : धूप में सुखाई गई चना,तिवरा,गोभी आदि की  भाजी,  पिकरी : पीपल का  फल, जुन्‍ना : पुराना, तरियावत : नीचे होना, पंगपगांत : सूर्योदय पूर्व, जतवा : कोदो दलने हेतु मिट्टी की बड़ी चकिया,  खोंधरा : घोंसला,  झांपी : शादी में कन्‍या पक्ष की  ओर से वर पक्ष को सगुन के  सामान भरकर दिये जाने वाला बाँस से निर्मित ढक्कन सहित बड़ा टोकना,  झपुलिया : ढक्‍कन वाली बाँस की विशिष्ट टोकरी,  घुटरब : आवाज निकालना,   खंचवा : गड्ढा,  अतमैती : मृत्‍युभोज, अदरा : नवसिखिया, धरसा : गाँव में निस्तार हेतु बैल गाडिय़ों एवं जानवरों के आने-जाने के  लिए छोड़ा गया चौड़ा रास्ता,  बोमियावत : अधीरता से आवाज निकालना,  चतवारे : साफ करना

Thursday, April 28, 2011

गाँव कहाँ सोरियावत हें..भाग-२


खंडकाव्य "गाँव कहाँ सोरियावत हें"... के दूसरे भाग में प्रस्तुत है कृति के रचियता सुकवि बुधराम यादव का स्वयं इस इस कृति रचना पर विचार 

चार आखर

सत ले बड़े धरम, परमारथ ले बड़े करम, धरती बड़े सरग अउ मनुख ले बड़े चतुरा भला कउन हे । संसारी जमो जीव मन म सुख अउ सांति के सार मरम अउ जतन ल मनखे के अलावा समंगल कउनो आने नइ जानय । तभो ले बिरथा मिरिगतिस्ना म फंसे कइयन मनखे फोकटिहा ठग-फुसारी, चारी-चुगरी, झूठ-लबारी,लोभ-लंगड़, लूटा-पुदगी, भागा-भागी,मारा-मारी के पीछू हलाकान, हाँव-हाँव अउ काँव-काँव म जिनगी ल डारे कउआत रथें । सब जानत अउ सुनत हें संतोस ले बड़े दौलत अउ कउनो नइ हे, तभे तो निरजन बीहर, डोंगरी-पहरी म घलव रहिके मनखे डब-डब ले सुख अउ सांति म भरे रथें । दूसर कति महल अटारी,सोन-चांदी, घोड़ा-गाड़ी, सेज-सुपेती के बीच परे मनखे असकटावत अउ छटपटावत रथें ।

जब मनखे सिरिफ अपनेच बाहिर देस-दुनिया के बिस्तार करे के नाव म अपन असली जर अउ जमीन ले दुरिहाये लगथे ओला बिसराये लगथे अउ सरग बर गोड़ लमाये के जतन करे लगथे तव ये खचित जानव के ओ ह रावन कस अपन सोनहा लंका के बिनास कराय के उदिम करे लगथे । तभे तो ये ह सोरा आना सच लगथे के-

डार के चुके बेंदरा - मउका चुके किसान ।
मूर ले चुके जीव के -कहां भला कइलान ।

उत्तम साहित्य के सिरजइया न अगास म बसंय, न अगास के उन बात कहंय । येेही संसार म रहिके चारो कति बगरे जिनगी अउ दुनिया के संग ओकर नता-गोता के हियाव करथें । येकर खातिर उनला बरोबर लोकाचार,लोक -बेवहार अउ लोक के हिरदे के धड़कब घलव ल चेत लगा के सुने अउ जाने परथे । इंकर बिसय म कुछ लिखब घलव ह निचट सहज नोहय । ये ह कांटा-खुंटी, उरभट-खुरभट, चिखला-कांदो,पानी-पूरा अउ आगी-अंगरा म चलब कस जनव कठिन बुता आय ।

`गाँव कहाँ सोरियावत हें' सीरसक के कविता म कोइली के कलपब अउ मैना के बिलपब ह कवि के बिरथा सबदजाल गढ़ब नोहय । समे, समे के बदलाव ओकर सरूप अउ ओकर परभाव के अंदरोनी जियान के ये ह परगट परमान आय । `सोरियावब' सबद ह सफा-सफा कुछ भुलाये-बिसराये, लुकाये-छुपाये अउ नंदाये-गंवाये जिनिस के खोज खबर लेहे कति संकेत करथे । आज हमर सबके समुंहे ये सवाल खड़े हे के का गाँव सिरतों गंवावत हें ? बस ! ये सवाल के जवाब अउ निरनय के संग एकर असली समाधान सरेखे के परयास अउ उदिम करे के बिनती संग ए कविता किताब गुनवान, बिद्वान,पढ़इया, समझइया मन के हाथ सउंपत हावंव । ये आस म के इन चार लकीर के मरम खातिर घलव बिचार करहीं -

देस के जम्मो गांव म-जउन घटत हें रोज
अवइया दिन बर करहीं-चतुरा सबके खोज ।
रहब बसब करनी-कथनी- नेम-धेम अउ न्याव
सत-इमान मरजाद बिन- गाँव कहां के गाँव ?

संसार कागद के पुड़िया ये, माटी के ढेला ये, लइकन के घरघुंदिया ये अइसनहे अउ कतको पटंतर हवंय एकर सिरजब अउ बिनास बर, बनब अउ बदलाव बर । तभे तो घुरुवा ह मंदिर, मरघट ह महल अउ पहार घलव ह खोधरा म देखते देखत लहुट जाथे । येही ह तो ये दुनिया के परकीरति आय । कथें के -
जेकर जरय भांटा - तउन रितोवय पानी ।

किताब के भूमिका के `गाँव रहे ले दुनिया रइही' म परसिद्ध भासाबिग्यानी डॉ. चित्तरंजनकर जी लिखे हावंय के `हमर सभयता के नांव खा-पीके,जीके नइ धराय हे । ओ ह सबके सुख म सुखी अउ सबके दुख म दुखी होय के नाव आय ।' ऊपर लिखे हाना के सगरी मरम जनव उंकर ये गोठ म समाये हावय । हमर भारत भुंइया गांव-गंवई के देस आय, 75 ले 80 सैकड़ा तक मनखे 6 लाख 35  हजार ले जादा गांव बस्ती म रहिके बयपार,बनी-भुती कइ आने उदिम अउ खेती-खार करत जिनगी पहावत हें । पन नवा जमाना अउ देस दुनिया के परभाव म उन अपन असली जर ले दुरिहावत हें, ओला बिसरावत हें । अइसन काबर ? देखब म लगथे के अब-

गाँव रहंय न गाँव-जिहां - सुमता के डेरा होय
सत-इमान अउ रीत-नीत के - निसदिन फेरा होय ।

साहित्य के सबले बड़े बुता आय देस-दुनिया समाज अउ मनुख ल जगावब, चेतावब, बतावब अउ डहर देखावब । इहां बिलग-बिलग परसंग म आनी-बानी के बिसय अउ उंकर चरचा ल सबद म ढारे के बरोबर जतन होय हावय । तभो ले संपूरन अउ समंगल कहे के परमान देवब ह अपन कमती बुद्धि के बोध करावब होहय । `गाँव कहां सोरियावत हें' कविता के भीतर के जमो बात सिरतो कहंव तव मोर आंखी के परखे अउ कान के ओरखे कस लगथें । हां ! बिसयबस्तु अउ परसंग ल सफा-सफा कहे के बिबसता म कहंु कुछ कम जादा हो सकत हें । सब कुछ गुरतुरहा कहे के जतन म कुछ सिट्ठा,अम्मठ अउ करुकसा होवब घलव ह बिलकुल अकारन नोहय । सबके गुन अउ धरम ल जस के तस निमेर अउ पछिन के चतुरा मन सकेलहीं अउ समोखहीं अइसन पूरा बिसवास हावय ।

जमो साहित्यकार,सुधिजन, बुधिजन अउ गुनिजन मन ले सनमान सहित अनुनय अउ बिनय हावय के `गांव कहां सोरियावत हें ' पढ़ के अपन सोच अउ बिचार ल आसीरबाद के रुप म भेजे के जतन जरुर करहीं । परमहितवा भासाविग्यानी डॉ. चित्तरंजनकर जी के गजब अभारी हवंव जउन `गांव रहे ले दुनिया रइही' सीरसक ले किताब के `भूमिका' लिखे के किरपा करके येकर मोल ल बढ़ाये म सहजोग देवब के उपकार करे हावंय । छेवर म मोर जमो उन अतमा-परतमा, हित-मीत, संगी-जंवरिहा मनके संग बिद्वानन के घलव जबर अभारी हवंव जउन मन पीछू दू बरिख ले `गाँव कहां सोरियावत हें' के रचना बहुत मया अउ दुलार के संग सुनय सराहंय अउ आसीरबाद देवंय । आज किताब सबके हाथ म सउंपत घरी मया दुलार संग आसीरवाद के मन म अउ जादा लालसा बाढ़त हावय ।

एकादसी, कातिक सुक्ल, 2010  
बुधराम यादव

Wednesday, April 27, 2011

गॉंव कहॉं सोरियावत हें

छत्तीसगढ़ी भाषा के साहित्यकार सुकवि बुधराम यादव जी  की नयी कृति जिसे विद्वानों ने सिर्फ लम्बी कविता न मानते हुए गाँव पर विरचित खंड काव्य ... की संज्ञा दी है. 

 "गाँव कहाँ सोरियावत हें "..को एक श्रृंखला के रूप में यहाँ पोस्ट करने की कोशिश है. इस किताब का विमोचन विगत दिवस प्रांतीय छत्तीसगढ़ी साहित्य सम्मलेन दूधाधारी मठ रायपुर में हुआ. समारोह के अतिथि अशोक शर्मा,अध्यक्ष छत्तीसगढ़ पाठ्यपुस्तक निगम, महंत रामसुंदर दास, विधायक जैजैपुर, राजीव श्रीवास्तव आयुक्त संस्कृति अवं पुरातत्व, महादेव प्रसाद पाण्डेय, दानेश्वर शर्मा, लक्षमण मस्तुरिहा थे. 

आज पहली कड़ी में खंडकाव्य का परिचय और डॉ चित रंजन कर प्रोफ़ेसर, साहित्य एवं भाषा अध्ययन शाला रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय- रायपुर की समीक्षा प्रस्तुत है.


गॉंव रहे ले दुनिया रइही

माँ अउ मातृभूमि ल सरग ले घलव महान कहे गये हे । मैं ह एम मातृभाषा ल घलव जोड़िहौं, काबर के हमन जइसन अउ जतका अपन बोली या भाखा म कहे सकत हन, ओइसन अउ ओतका आने भाखा या बोली म नइ कहे सकन । `गाँव कहाँ सोरियावत हें' बुधराम यादव जी के अइसन किताब आय, जउन ह उँकर मातृभाखा-परेम ल उजागर करत हे । कहे बर हमन सब गाँव-गंवई म जनमे-पले-बढ़े हन, फेर सहर के परभाव म आ के गाँव ल जानौ-मानौ भुलाइच डारे हन । `जुग भर के जोरे मया-पिरीत के गठरी सब छरियाव हें '

मनखे ह आने जीव-जन्तु मन ले कउन रूप म अगुवाए हे ? जिए बर सबो ल हवा-पानी-अन्न के जरूरत होथे, फेर मनखेपन के अतकेच कहनी नो हय - हमर सभ्यता अउ संसकिरति के नाँव खा-पी के, जीके नइ धराय गय हे । ओ ह सब के सुख म सुखी अउ सबके दुख म दुखी होय के नाँव आय । हमर सुवा, ददरिया, करमा,भरथरी, चंदैनी, पँडवानी, ढोला-मारू, आल्हा, रमायन के जउन रिवाज रहिस हे, ओ ह सोझे देखाए-सुनाए बर नई रहिस - ओ मन हमर सुख-दुख के, मया-पिरीत के समुंदर हें, जउन आज `तरिया, नदिया, कुवाँ,बवली के पानी असन अटावत हें ।'

`गाँव कहाँ सोरियावत हें' के कउनो छंद ल पढ़ौ अउ देखौ कि गाँव म काली कइसन सुमता-मया रहिस अउ आज का हो गे हवय । बुधराम जी अपन हिरदे के पीरा ल कहत नइ अघावत हें के

``जुन्ना दइहनहीं म जब ले
दारू भट्ठी होटल खुलगे
टूरा टनका मन बहकत हें
सब चाल चरित्तर ल भुलगें
मुख दरवाजा म लिखाये
हावय पंचयती राज जिहाँ
चतवारे खातिर चतुरा मन
नइ आवत हावंय बाज उहाँ
गुरतुर भाखा सपना हो गय
सब काँव-काँव नरियाव हें ।''

पूरा किताब ह एकेच ठन कविता म पूर गे हे । `गठरी सब छरियावत हें', घंघरा -घुंघरू, घुम्मर-घांटी, `सबके मुड़ पिरवाथें', चाल चरित म कढ़े रहँय, दुबराज चाँउर के महमहाब, `बिन-पानी', `सारंगी जब बाजय', `नाचा-गम्मत', `मातर-जागँय',`महँगा जमो बेचावत हें', `अँखमुंदा भागत हें',- ए बारा ठन सिरसक मन म गाँव के तइहा के बरनन अउ आज के हालत ल कवि ह जइसन देखिस तइसनेच उद्गारे हवय, जउन म हमर गाँव के परकिरति अउ संसकिरति ह परगट झलकत हे ।

आधुनिक सभ्यता के आए म हमन का सिरतोन अगवाए हन ? जउन ह पहिली समस्या नइ रहिस, ओ ह आज अइसन बिकराल रूप धरत जात हे के कउन जनी, दस-बारा बछर के बाद ए धरती के का होही ? पानी ल जीवन कहे गय हे - बिन पानी सब सून । आज पानी के समस्या गाँव-गाँव, सहर-सहर म बियापे हे । एकर का उपाय हे ? आवव देखी-

`रतनपुर जइसन कइ गढ़ के, छै-छै कोरी तरिया
बिना मरम्मत खंती माटी, परे निचट हें परिया
बरहों महीना बिलमय पानी, सोच उदिम करवइया
जोगी डबरा टारबाँध, स्टापडेम बनवइया ।
मिनरल वाटर अउ कोल्डड्रिंक फेंटा पीके गोरियावत हें ।'

हमन रूख-राई ल काट के जंगल के सइतानास कर डारेन अउ नवा-नवा , किसिम-किसिम के पेंड़-पौधा ल रोपे के नाटक करत हन - पानी कहाँ ले बरसही एकरे सेती आज `भादो महीना रोवय', कहे म का अचरज हे ।

नवा जमाना म आके जइसे हमन अपन पुरखा मन के नाव घलव ल बिसर डारेन अउ जिहाँ देखौ, उहां टी.व्ही., वीडियो फिलिम, सीरियल के नकली चरित्तर ल देख सुन के नवा पीढ़ी के लइका मन फेसन के आड़ म अपन बेवहार म लावत हें, अउ जिनगी ल स्वाहा करत हें । धरम-करम के जइसे जानव नाव ह नंदा गे हे -

`पुतरी अउ ओ रहस लीला के
दिन जानव दुरिहागंय
टी.व्ही. विडियो फिल्मी एलबम
ठौर म इंकर समागंय
ब्रह्मा बिसनू पारबती सिव
संग राधा गिरधारी
बिसर के चारोंधाम करावत
हें सीरियल म चारी ।'

कवि के धियान छतीसगढ़ के गाँव-गाँव के अंगना बारी, गली-खोर, खेत-खार, जंगल-पहार, नदिया-नरवा, तरिया-डबरी - सबके उपर जाथे अउ ओखर आँखी- देखे हाल ल बतावत नइ अघाय , फेर बस्तर के संसो घलव ह ओ ल अब्बड़ घालथे । जउन बस्तर ल कभु सांती के टापू कहत रहिन हे जिहाँ जंगल म मंगल रहिस हे उहाँ अब-

`बघवा भलुवा चितवा तेुदवा सांभर अउ बन भंइसा
रातदिना बिचरंय जंगल में बिन डर भय दू पइसा
नक्सलवादी अब इंकर बीच डारत हांवय डेरा
गरीब दुबर के घर उजार के अपन करंय बसेरा
तीर चलइया ल गोली-बारूद भाखा ओरखावत हें ।'

ए किताब म कवि के भाखा के कमाल देखत बनथे । छत्तीसगढ़ी के गुरतुर सेवाद कहूं-कहूं पं. सुन्दरलाल शर्मा के `दानलीला' के सुरता कराथे, त कहूं-कहूं पं. मुकुटधर पांडेय के `मेघदूत' (अनुवाद) के । विसय-वस्तु के बरनन अर सैली म पं. गोपाल मिश्र के `खूबतमाशा' के सुरता देवइया ए किताब ह छत्तीसगढ़ी बोलइया मन के अंतस ल तो जुड़वाबेच करही, हिंदी अउ आने बोली बोलइया मन ल छत्तीसगढ़ी सीखे बर मददगार साबित होही । छत्तीसगढ़ी भाखा के छत्तीसगढ़ीपन ल जाने बर नमूना खातिर खाल्हे लिखे परयोग ल देखौ -

`आनी-बानी,बारी-बखरी, छर्रा-छिटका, हाट-बाट,देवता-धामी, पितर-गोतर, साग-पान, घर-कुरिया, कद-काठी, नाती-नतुरा,खोर-गली, गहना-गुरिया, नकटा-बुचुवा, मारे-कूटे, मरहा-खुरहा, भड़वा-बरतन, खेत-खार,मिसे-कुटे, धान-पान, गाय-गरू, भाजी-भांटा,गाँव-गँवई, मेला-मड़ई, बर-बिहाव, अन-धन, चिरइ-चिरगुन,डोंगरी -पहरी, दूध-दही, बरा-सोंहारी, चुल्हा-चौकी जइसन द्विरूक्तिमूलक सबद मन म छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी संसकिरति के साँस अउ आस रचे-बसे हें । जउन मन छत्तीसगढ़ी के हाना-जनउला ल नइ जानंय, ओ मन बिन पानी के दू असाढ़ (दुब्बर ल दु असाढ़),गर म छुरी चलावन, अलख जगावन,राग मिलावन, करम ठठावन, कदम मिलावन, सरग म गोड़ लमावन, कलकुत, कर-कइया, कुकुर-कटायन जइसन परयोग ल ए किताब म जगा-जगा देखे सकत हें ।

छत्तीसगढ़ी के गुरतुरपन ल बढ़ाय म घुटुर-घुटुर, घरर-घरर, घमर-घमर, खटर-खटर, बटर-बटर,टपटप-टपटप, लकर-धकर, जइसन ध्वन्यात्मक सबद मन के का कहना ।

जमो मिलाके बुधराम यादव के किताब ह अपन माटी महतारी के महिमा के बखान करे म कउनो कसर नइ छोड़े हे, जउन म अपन भाखा और संसकिरति के अंजोर ह मनखे पन ल उजागर करथे, काबर के -

` गाँव रहे ले दुनिया रइही, पाँव रहे ले पनही
आँखी समुहें सबो सिराये ले पाछू का बनही
दया-मया के ठाँव उजरही, घमहा मन के छइहाँ
निराधार के ढेखरा कोलवा, लुलुवा मन के बइहाँ ।

गणेश चतुर्थी, भादो, सन्' 2010

(डॉ. चितरंजन कर)
प्रोफेसर (सेवानिवृत्त)
साहित्य एवं भाषा अध्ययनशाला
पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय
रायपुर


गॉंव कहॉं सोरियावत हे
छत्तीसगढ़ी कविता
बुधराम यादव
पहली संस्करन : 2010
मूल्य : एक सौ रुपए
कृति स्वामी : बुधराम यादव
प्रकाशक :  छत्तीसगढ़ी साहित्य समिति, जिला शाखा, बिलासपुर (छ.ग.)
आखर संयोजन : योगेन्द्र कुमार यादव
छापाखाना : योगी प्रिन्टर्स, डी-1, सुपरमार्केट, अग्रसेन चौक, बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
मोबाइल : 094252 22806

सम्पर्क : बुधराम यादव `मनोरथ', एमआईजी-ए/8, चंदेला नगर रिंग रोड नं.2, बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
मोबाइल : 097551 41676

समरपन...

सौ बरिख ले ऊपर के पूज्यवर पिता
श्री भोंदूराम यादव जी
ल सादर समरपित...

ओर-छोर के बिवरन

1. गठरी सब छरियावत हें
2. घंघरा-घुंघरु, घुम्मर-घांटी
3. सबके मुंह पिरवाथें
4. चाल चरित म कढ़े रहंय
5. दुबराज चांउर के महमहाब
6. बिन पानी
7. सारंगी जब बाजय
8. नाचा-गम्मत
9. मातर जागंय
10. तैहा के सब बैहा ले गयं
11. महंगा जमो बेचावंत हें
12. अंखमुंदा भागत हें

नवा जमाना अउ समे के परभाव ले
गाँव-गँवई के असल सरूप सिरावत हें,
चाल-चरित्तर नंदावत हें अउ गुन ह जनव गंवावत हें ।
गाँव दिनों दिन शहर कति सरकत जाथे,
ये सबके पीरा ले सरोकार खग-पंछी ल
मनखे ले जनव जादा हावय ।
तभे तो ये सगरी कविता कोइली के कलपब
अउ मैना के बिलपब ले सराबोर हे

Sunday, April 17, 2011


छत्तीसगढी भाषा में यह खंड-काव्य अभिनव है. आदरणीय बाबूजी को प्रणाम.
shar.es
‎"देखते देखत अब गॉंव गियॉं सब शहर कती ओरियावत हें ! कलपत कोइली बिलपत मैना मोर गॉंव कहॉं सोरियावत हे !"

Tuesday, April 12, 2011

एक सैनिक की मौत...

"लगभग अनामंत्रित" रचियता अशोक कुमार पाण्डेय ... की अनेक रचनाओं को पढकर निरपेक्ष या फिर निरापद नहीं रहा जा सकता. पाठक को मत बनाने या फिर सोचने को 'लगभग' नहीं निश्चित रूप से विवश करती है. उसी संग्रह से एक गीत...

एक सैनिक की मौत...

तीन रंगों के 
लगभग सम्मानित से कपड़े में लिपटा
लौट आया मेरा दोस्त 

अख़बारों के पन्नों 
और दूरदर्शन के रुपहलों पर्दों पर 
भरपूर गौरवान्वित होने के बाद 
उदास बैठे हैं पिता
थक कर स्वरहीन हो गया है माँ का रूदन 
सूनी माँग और बच्चों की निरीह भूख के बीच 
बार-बार फूट पड़ती है पत्नी 

कभी कभी 
एक किस्से का अंत 
कितनी अंतहीन कहानियों का आरम्भ होता है 

और किस्सा भी क्या ?
किसी बेनाम  से शहर में बेरौनक-सा बचपन 
फिर सपनीली उम्र आते-आते 
सिमट जाना सारे सपने का 
इर्द-गिर्द एक अदद नौकरी के 

अब इसे संयोग कहिये या दुर्योग 
या फिर केवल योग 
की देशभक्ति नौकरी की मजबूरी थी 
और नौकरी जिंदगी की 
इसीलिये 
भारती की भगदड़ में दब जाना 
महज हादसा है 
और फँस जाना बारूदी सुरंगों में 
शहादत !

बचप में कुत्तों के डर से 
रस्ते बदल देने वाला मेरा दोस्त 
आठ को मार कर मरा था 

बारह दुश्मनों के बीच फँसे आदमी के पास 
बहादुरी के अलावा और चारा भी क्या है ?

वैसे कोई युद्ध नहीं था वहाँ 
जहाँ शहीद हुआ था मेरा दोस्त 
दरअसल उस दिन 
अखबारों के पहले पन्ने पर 
दोनों राष्ट्राध्यक्षों का आलिंगनबध्द  चित्र था 
और उसी दिन ठीक उसी वक्त 
देश के सबसे तेज चेनल पर 
चल रही थी 
क्रिकेट के दोस्ताना संघर्षों पर चर्चा 
एक दुसरे चेनल पर 
दोनों देशों के मशहूर शायर 
एक सी भाषा में कह रहे थे 
लगभग एक-सी गजलें 

तीसरे पर छूट रहे थे 
हँसी के बेतहाशा फव्वारे 
सीमाओं को तोड़कर 

और तीनों पर अनवरत प्रवाहित 
सैकड़ों नियमित खबरों की भीड़ में 
दबी थीं 
अलग-अलग वर्दियों में 
एक ही कंपनी की गोलियों से बिंधी 
नौ बेनाम लाशें 

अजीब खेल है 
कि वजीरों के दोस्ती 
प्यादों की लाशों पर पनपती है 
और 
जंग तो जंग 
शान्ति भी लहू पीती है !

............अशोक कुमार पाण्डेय.