Tuesday, January 13, 2015

तुम बेवजह याद रहती भी कहाँ हो













क्या कहा ?

तुम अपनी इन पतली उँगलियों को मेरे पलकों के गिर्द नचाना छोड़ो अब ! जानती हो, उधर पोमेस्ट्री वाले रुम में सब घूर रहे थे.

उँगलियों को ?

नहीं, तुम्हारी सूरत को.

इसीलिए तो गणनायें गलत होती हैं इनकी.

तुम भी न ; उन्हीं लकीरों की बात करती हो.

अहाँ........! जिनके हर घड़ी बदलने की फ़िक्र होती है, कभी उस तरफ तो कभी हमारी तरफ़.... ब्ला.. ब्ला.. ब्ला. लो पूरा कर देती हूँ मैं.

थोड़ी देर की नीरवता से वह कुछ सुनने की कोशिश करती है.

ज़रा सुनो...!! अब मंदिर की घंटियों की आवाज़ साफ़ आने लगी. मम्मा भी निकल आयी होगी, उनसे मेरे रिश्ते की बात करके.

तुम उंगलियाँ नचाना बंद तो करो.... शकुन.

तुम भी न ! अब फिरा रही हूँ, तुमने बाल इतने बढ़ा रखे हैं कि तुम्हें नचाना लग रहा है.

पापा ने तो मेरे लिए हामी भरी थी न, फिर.......

मेरी उंगलियाँ लम्बी हैं न इसलिए पतली लगती हैं और तुम्हें पता है .....

क्या ???

मम्मा को सिक्यूरिटी पसंद है, हर तरह की. आदमी, आदमी की नीयत, और उसके जॉब की भी. 

चलो मेहुल ! अब उठो. ये सुलझेंगे नहीं, शेम्पू नहीं करते क्या ? पामिस्ट भी नहीं सुलझा सकता लकीर और रास्ते टेढ़े हों तो..... हँसती है खिलखिलाकर ..... शकुन.

आईने के सामने अब छोटे रह गए बालों पर कंघा चलाते तुम इसी तरह जेहन में आती हो और मैं नाहक कोशिश करता हूँ उन लम्हों को भुलाने की. तुम बेवजह याद रहती भी कहाँ हो.

मेहुल फिर बुदबुदाता है, 
मंजरी फिर उसे कनखियों से देखती है, 
वो फिर एक दूसरे को देखते हैं, 
दोनों फिर फीकी मुस्कान फेरते हैं, 
फिर "बाय" कहते हैं .... पिछले 6 साल से रोजाना की तरह, ऑफिस जाने से पहले एक दूसरे को.  




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