Sunday, March 8, 2015












गुरुत्वाकर्षण- आकर्षण-शारीरिक विवशता
(दम लगा के हईशा)
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सिनेमा एक गज़ब की विधा है, अपनी बात कहने के सबसे प्रभावी माध्यमों में से एक. दर्शक के सभी इन्द्रियों को गूंथकर धीमी आंच में दिल-दिमाग को सेंक लेने वाली. मुकेश, मोहिंदर-हरेन्द्र भाई ने सब कह दिया, वैसे अब कुछ शेष रहा नहीं. मगर उसी "शाखा" में दिए वचन निभाने के लिए मेरा लिखना कदाचित आवश्यक है.

मध्य वर्ग के लिए जहाँ टिकिट से कई गुना भारी पॉपकॉर्न और समोसे के रेट पड़ते हों और कॉफ़ी का बड़ा कागजी कप मेरे जैसे प्राणी के लिए दो तीन के हिसाब का हो, वहाँ मुकेश-हरेन्द्र भाई की स्पॉन्सरशिप में मोहिंदर भाई का कॉफ़ी में हिस्सेदारी कर लेना, जाहिर है मेरे लिए फिल्म के मजे को कुछ स्टार बढाने जैसा है.
अपनी ख्वाहिशों को मसोसकर, कर्ज लेकर उपभोग किये जा रहे उपकरणों के मद्देनज़र मध्यवर्ग का दायरा भले ही बढ़ा लिया गया हो मगर भारत का असल और मूल मध्यवर्ग यही है जो जीवन में हर दिन करता है "दम के लगा के हईशा..."
कहानी तो आप जान ही चुके हैं. उस वय, और इस वर्ग की चिर चाहत से अलग मोटी युवती के किरदार में "भूमि पेंदनेकर" अपने भारतीय नाक-नक्श और सहज अभिनय से हीरो "आयुष्मान खुराना" को दम लगाने में सच में बेलेंस करती है. संजय मिश्रा [नायक के पिता की भूमिका में] और अन्य पात्र बोनस की तरह हैं जो जब स्क्रीन पर आते हैं दर्शकों को कुछ न कुछ दे जाते हैं.
निर्देशक की बुनाई में कहानी, स्क्रीन प्ले, पात्रों की कास्टिंग, देशकाल सब अपने ठिकाने पर हैं, उसी में खुबसूरत टिपकियों की तरह संवाद को भी बुना गया है. आजकल फिल्मों में सप्रयास शहर को एक पात्र की भूमिका निर्वाह कराया जा रहा है, जिसे निर्माता आदित्य चोपड़ा और निर्देशक/सिनेमेटोग्राफर " शरद कटारिया की टीम ने बखूबी निभाया है.
गीत-संगीत फिल्म के लय में हैं. हाँ पात्रों की भाषा के मसले पर हरेन्द्र भाई से सहमत.
और ख़ास बात ..... पूरी फिल्म देखते हुए एक बात यह कौंधती रही कि "शाखा" परिवार अब तक इसका "संज्ञान" क्यों नहीं ले सकी कि उसके "क्रांतिवीर" यहाँ वन्देमातरम के इतर मद्यपान, मुख अतिचार करते दिखाए गए हैं. खैर.... हईशा को दम भी तो उनके चर्चित ब्रह्मचर्य "शाखाई व्यायाम" से ही प्राप्य होना जो दर्शाया गया है. 

फिल्म देखना हो तो पति-पत्नी अनिवार्य और जो संयुक्त परिवार के साथ है, वे सभी जिम्मेदार सदस्यों के साथ देखें. रिश्तों के सारे मंज़र चुपचाप देखने के बजाय.....

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समीर

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