सुकवि बुधराम यादव की लम्बी कविता "गाँव कहाँ सोरियावत हे" की अगली कड़ी भाग- 11 के रूप में प्रस्तुत है. इस अंक में "मातर जागंय" में कवि ने लोक गीत-नृत्य, खेल,पशु-धन और उसके महात्म्य को स्मरण किया है...
मातर जागंय
बड़ा अटेलिहा* अहिरा छोकरा
दूध बिना नइ खावंय !
घाट पाट बीहर जंगल म
गाय अउ भैंस चरावंय !
भड़वा मन म दूध चुरोवंय
मरकन* दही जमावंय !
भिनसरहा ले चलय मथानी
ठेकवन* लेवना पावंय !
घी के बदला दूध ल अब तो
खोवा बर खौलावत हें !
चरवाही संग गाय भैंस के
रच्छा सुघर करे बर !
किसान कन्हाई कुल के देवता
पूजंय दुख हरे बर !
नवा खवावंय मातर जागंय
पुरखन ल फरियादंय !
गांव ठांव म सबके मंगल
ठाकुर देव ले मागंय !
बिन दइहान अब दुल्हादेव* के
खोड़हर* नइ पूजावत हें !
एकादशी देवारी धर के
कातिक तइहा आवय !
अंगना डेहरी तुलसी चौरा
म दीयना ओरियावंय !
रइया* सुमिरंय अउ गोर्रइया*
बस्ती के ओ मरी मसान
पुरखन के चौंसठ जोगनी ल
सुमिरंय, कहंय करौ कइलान !
घर अंगना का छन* म तइहा कस
अब नइ खउरावत* हें!
गोबर के सुखधना* किसानन
के कोठी म मारंय !
अउ सुख सौंपत खातिर उंकर
सुघ्घर शबद उचारंय !
गर म सुहई* बांध गाय के
पइयां परंय जोहारंय !
अन-धन बाढय़ दूध बियारी
मालिक करव गोहारंय !
आज सुहई संग नेह के
लरी घलव मुरझावत हें !
सरधा जबर रहंय तइहा
अउ सिरतो म पुरसारथ !
पन अइसन कुछ बात घलव
जे लागंय निचट अकारथ !
बात बात म लाठी पटकंय
मुड़ अउ माथा फोरंय !
अपने जांघ उघारंय अउ
फदिहत कर दांत निपोरंय !
बाहिर ले उज्जर झलके बर
अग भीतर फरियावत हें!
ठौर ठौर म देखव तो अब
राउत नाचा होथे !
कला समुंद म लोक के जानव
कइ बूंद अपन समोथें !
साजू बाजू कलगी पगड़ी
घुंघरू मुंदरी माला !
फरी हाथ संग दू ठन लाठी
ऊपर फरसी भाला !
पुरखन के बाना ल धर के
जुग संग कदम मिलावत हें !
चमक धमक अउ सिरिफ देखावा
दिन दिन बाढ़त जाथे !
गड़वा बाजा अहिरा बाना
दोहा घलव नदाथें !
गय ठाकुर के ठकुरी जानव
अउ अहिरन के अब तो मान !
उतियाइल* मन मुखिया होगंय
धरसा तक म बोइन धान !
सरोकार सब लोगन मन के
नदिया जनव सरावत* हें !
धरती पिरथी पुरखा पुरबज
मन के भाखा बानी!
झुमरंय नाचंय अउ बजावंय
गावत रहंय जुबानी !
अतमा सगा परतमा बइठे
जुरके सुनय सुनावंय!
ये ओड़हर* म अंतस के सब
इरखा डाह बुझावंय!
अब पहुना के आवब कलकुत*
जावब जबर सुहावत हे!
हिंदी अरथ :- अटेलिहा- अखड़ स्वभाव के, मरकन- मिट्टी के बड़े बर्तन, ठेकवन- मिट्ïटी के दोहनी जैसे बर्तन, सुखधना- गोबर हाथ में लेक र अन्न कोठी में शुभकामना देना, सुहई- कार्तिक एकादशी और पूर्णिमा को गाय के गले में बाँधने हेतु परसा की जड़ की रस्सी से बनाई गई कई लरों की रंगीन रस्सी, दुल्हादेव- कुलदेवता , खोरहर- लकड़ी का खंभा जिसमें कुल देवता का स्थापित कीया जाता है, रईया- संक्रामक रोगों से रक्षा करने वाले देव, गोरईया- गौठान की रक्षा करने वाले देवता, काछन -सवारी आना, खऊरावत- धूल-धूसरित क रना, उतयाईल –उपद्रवी, सरावत- विसर्जित करना, ओढर- बहाना, निमिट्टत, कलकुत- असुविधाजनक
1 comment:
आभार इस प्रस्तुति का.
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