Saturday, July 9, 2011

गाँव कहाँ सोरियावत हे .. भाग-13


सुकवि बुधराम यादव की लम्बी कविता "गाँव कहाँ सोरियावत हे" की अगली कड़ी भाग- 13 के रूप में प्रस्तुत है. इस अंक में " महंगा जमो बेचावत हें " में कवि ने लोक और उसके महात्म्य को स्मरण किया है... 

महंगा जमो बेचावत हें

रूपिया भर म कतेक  बतावन
का  का  जिनिस बिसावन!
कॉंवर भर भर साग पान
टुकना भर अन्न झोकावन!
राहर दार लुचई के  चाऊंर
चार चार सेर लावन!
अइसन सस्ता घी अउ दूध के
पानी असन नहावन!
अब सरहा पतरी के  दाम ह
रूपिया ले अतकावत* हे!

‘‘पानी के  बस मोल’’ के  मतलब
सस्ता निचट कहाथे!
अब तो लीटर भर जल ह पन
बीस रूपिया म आथे!
थैला भर पैसा म खीसा भर
अब जिनिस बिसाथन!
महंगाई के  जबर मार ल
रहि रहि के  हम खाथन!
मनखे के  मरजाद छोड़ अब
महंगा जमो बेचावत हे!

सपना हो गय तेल तिली के
अउ तेली के  घानी!
अरसी अंड़ी भुरभुंग लीम अउ
गुल्‍ली आनी बानी!
सरसों अउ सूरजमुखी संग
सोयाबिन महगागय!
जमो जिनिस के  दाम निखालिस*
सरग म जनव टंगागय!
घी खोवा अउ दही दूध ल
मुरूख जहर बनावत हें!

रूपिया भर म नूनहा बोरा
चार आना सेर चाऊंर!
बिना मोल कस कोदो कुटकी*
साँवा* सहित बदाऊर* !
'वार बाजरा जोंधरा जोंधरी
धनवारा* गुड़ भेली!
बटुरा मसुरी चना गहूं
सिरजइया महल हबेली!
तिवरा राहर मूंग मोल अब
सरग म गोड़ लमावत हे।

रूपिया चार आना अठन्नी
जांगर टोर क मावंय!
ठोमा-खाँड़* पसर का  चुरकी
भुरकी  भर भर लावंय!
बांट बांट कुरूचारा*  कस
जुरमिल के  सब खावंय!
एक  दूसर के  सुख दुख सिरतों
जानय अउ जनावंय!
अब सौ रूपिया घलव कमा के
कल्लर-कइया* लावत हें!


हिंदी अरथ-  अतकाव - अधिक होना, निखालिस- केवल, निश्चित माने, कुटकी- कोदो प्रजाति की फसल जो अविकसीत भूमि में जंगल प्रक्षेत्र में बोई जाती है, सांवाएक  तरह की घास जिसे अकाल की स्थिति में लोग अन्न के  रुप खाते हैं , बदाउरएक तरह की घास, घनवारा- गुड़ बनाने हेतु गन्ने के खेत में स्थापित चरखे की जगह ठोमा-खांड -हथेली भर, कुरूचारा- आपस में पक्षियों का  चारा बाँटने की प्रक्रिया, कल्लर-कईयाआपसी-विवाद, अशांति

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