Sunday, July 10, 2011

गाँव कहाँ सोरियावत हे .. भाग-14 [ समापन भाग ]



सुकवि बुधराम यादव की लम्बी कविता "गाँव कहाँ सोरियावत हे" की अगली कड़ी  भाग- 14 [ समापन भाग ] के रूप में प्रस्तुत है. इस अंक में " अंखमुंदा भागत हें " में कवि ने लोक और उसके महात्म्य को स्मरण किया है... 

अंखमुंदा भागत हें

कहे भुलाइन कनिहा कोहनी
घुठुवा मुरूवा* माड़ी !
पिसनही जतवा* ढेंकी* अऊ
मूसर धूसर कॉंड़ी*!
पर्रा* बिजना* टुकना टुकनी
पैली* काठा खाँड़ी !
सेर पसेरी नादी* ठेकवा*
दीया चुकलिया* चाँड़ी !
लीटर मीटर किलो म अब
जिनिस ह जमो नपावत हे!

बटलोही* बटुवा थरकुलिया*
कोपरा कोपरी हंडा!
किरगी-किरगा* पाला* पौली*
अउ दरबा* सत खडा!
बटकी  मलिया* गहिरही*
हाथी पाँव कटोरा!
फूल कांस थारी म परसय
जेवन बहू अंजोरा!
अब फकत फाइबर चीनी के
घर घर सेट सजावत हें!

नींद भर रतिहा ले जागंय
अउ का म बुता ओसरावंय!
चटनी बासी टठिया भर
बेरा ऊवत पोगरावंय*!
हंसिया कुदरी धरे हाथ
मुंड़ म डेकची भर पानी!
पाछू पाछू चलय मंडलिन
आगू चलय जहानी!
अब तो आठ बजे जागंय अउ
चाह म चोला जुड़ावत हे!

राखड़ यूरिया अउ पोटास
संग कइ किसम के  खातू!
कीरा मारे बर बिरवा के
कइ ठन छींचय बरातू!
साग पान के  सर सुवाद ह
बिलकुल जनव परागे!
रसायन खातू के  मारे
भुइंया जनव खरागे*!
अब तइहा कस बासमती न
महाभोग महावत* हें!

बावा भलुवा चितवा तेंदुवा
सांभर अउ बन भैंसा!
रातदिना बिचरंय जंगल म
बिन डरभय दू पैसा!
नसलवादी अब इंकर बीच
डारत हावंय डेरा!
गरीब दुबर के  घर उजार के

अपने करंय बसेरा!
तीर चलइया ल गोली बारूद
भाखा ओरखावत हें!

जबरन मारंय पीटंय लूटंय
जोरे जमो खजाना !
बेटा बेटी अगवा करके
सौंपंय फौजी बाना !
हमर घर भीतर घुसरके
हमरे मुड़ ल फाँकंय !
जेकर हाथ लगाम परोसी
कस दूरिहा ले झाकंय !
कांकेर बस्तर जगदलपुर का
सरगुजा दहलावत हें!

देश धरम बर जीवइया ल
खाँटी दुसमन जानय!
कानून कायदा राज काज
हरके -बरजे* नइ मानय!
बिना दोष के  मारंय पीटंय
लूटंय सकल उजारंय!
संग देवइया मन के  जानव
कारज जमो सुधारंय!
बिरथा मोह के  मारे मुरूख
बस दुरमत* बगरावत हें!

कतको   चतुरा मनुख हवंय
चाहे कतको   धनवंता !
कतको   धरमी-करमी चाहे
अउ कतको   गुनवंता !
कतको   रचना रचिन भले
अउ धरिन बड़े कइ बाना
इहें हवय निसतार जमो के
का कर सरग ठिकाना !
अखमुंदा भागत हें मनो
पन-पंछी अकुलावत हें !

गाँव रहे ले दुनिया रइही
पाँव रहे ले पनही
आँखी समुहें सबो सिराये
ले पाछू का  बनही !
दया मया के  ठाँव उजरही
घमहा मन के  छइहाँ
निराधार के  ढेखरा* कोलवा
लुलूवा मन के  बइंहाँ !
नवा जमाना लगो लउहा*
जरई अपन जमावत हें ।


हिंदी अरथ-   घुठुआ मुरुआ -कलाई, जतवा- मिट्ïटी की बड़ी चकी जिसमें कोदो दला जाता है , ढेंकी- पैरों द्वारा धान कुटने हेतु लकड़ी से निर्मित उपकरन, कांडी- लकड़ी में बनाया हुआ गड्ïढा जहाँ अनाज भरकर कूटते हैं, पर्रा- बाँस से बना गोलाकार आकृति का पात्र, बिजना- बाँस से बना हाथ से झलने वाला पँखा , पैली- अनाज नापने की बाँस से निर्मित सबसे छोटी टोकनी, नादी- दिये से बड़े आकार का मिट्ïटी का पात्र, ठेकवा - पाव दो पाव तक तरल पदार्थ रखने का  दोहनीनुमा मिट्ïटी का पात्र, चुकलिया - मिट्ïटी से निर्मित कटोरीनुमा पात्र , बटलोही- कांसे से निर्मित बटुवा से छोटा पात्र, थरकुलिया- कांसे से निर्मित छोटी थाली, किरगी-किरगा- अनाज रखने की कोठी, पाला- अनाज रखने की बड़ी कोठी, पौली- मिट्ïटी से निर्मित विशिष्टï अनाज रखने की छोटी कोठी , दरबा- कीमती वस्तुओं को रखने हेतु मिट्ïटी से बनी दरवाजे वाली कोठी , मलिया- कांसे की प्लेट, गहिरही- बासी आदि खाने के लिए कांसे से बनी गहरी थाली, पोंगारान्वय- अधिकार में लेना , खरागे- तपजाना, खरापन आ जाना, मम्हावतखुशबू होना, हरके-बरजेमना करना, दुरमत- कुमति, बैर -भाव, दुराग्रह, धेखरा- लताओं और बेलाओं को सहारा देने हेतु जमीन मे गड़ायी गयी पेड़ की  डाली,लउहा अविलंब, शीघ्र.

समापन

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