शायद शीर्षक पढ़कर अनेक लोगों को विश्वास ही नहीं होगा....होना भी नहीं चाहिए. ये तो 21 अक्टूबर "शहीद दिवस" हर साल मनाते हैं, इसलिए 'पुलिस' के साथ 'शहीद' लिख दिया.
पुलिस शहीद हो नहीं सकती, कैसे होगी जो समाज में व्याप्त सभी बुराइयों से वास्ता रखती है. उसके मृत्यु को शहीद का दर्जा दे भी तो कैसे.....???
@ जो भर्ती तो करती है ऊंचे आदर्शों और मानदंडों के साथ लेकिन यह छूट जातें हैं... प्रशिक्षण काल में ही.
@ जो अभी भी उन्हीं प्रशिक्षण तकनीक और उपकरणों को उपयोग कर जवान तैयार कर रही है जो वर्षों पहले [ जिसे तकियाकलाम में अंग्रेज जमाना या 1865 माडल कहतें हैं ] नकार दिए गये हैं.
@ जिस एजेन्सी की संख्या बल रोज बढती जनसंख्या और अपराध के अनुपात में हास्यास्पद अंक यथा नगण्य तक है. [ पुलिस में अक्सर इसे हौसला अफजाई के जुमले के रूप में इस्तेमाल किया जाता है कि एक सिपाही पूरे गाँव को हड़का आएगा और एक थानेदार अपने इलाके का मालिक होता है ] पर अब हकीकत क्या है, चैतन्य होती जनता संग अपराधी समझने लगी है.
@ जो सूचना देने पर [ ख़ुद से पाने पर नहीं भई ] भी अपने आधुनिक वेशभूषा, वाहन, उपकरण और अस्त्र-शस्त्र के साथ घटना स्थल पर सायरन बजाते मुंबई फिल्मों की तरह नाटकीय रूप से कई घंटों बाद पहुंचती है.
@ जो बिना अपशब्द के बात और बिना तरलता के काम नहीं करती है.
@ जो आम से दूर होकर सदैव ख़ास के पास की ड्यूटी करती है.@ जो 24 घंटे में कोई काम के घंटे तय न होने पर भी लगातार ड्यूटी करती है.
@ जिसमें एक ही जवान सफ़ेद वस्त्रधारियों की सुरक्षा, अपराध विवेचना, पतासाजी, धर पकड़ से लेकर मण्डी-मेले और ट्रैफिक की व्यवस्था सब में पारंगत होने जैसे कर लेता हो.
@ जो भ्रष्टाचार के इंडेक्स में 17 वें क्रमांक पर है, [ पहले 16 के बारे में आपको मालुम होगा, शायद..? ]
@ जिसके काम करने पर कभी-कभार यह कह दिया जाता है, कि ठीक है !!! यह तो उसका काम ही है. और बिगड़ने पर दूसरों की अकर्मण्यता का ठीकरा भी अक्सर उस पर ही फूटता हो.
@ जिसके फील्ड पर ड्यूटी करने वाले 55-60 साल के कांस्टेबल/ हेड कांस्टेबल भी जवान कहलाते हैं. सो काम भी जवानों की तरह करने पड़ते हैं.
@ जिसके 80 प्रतिशत कार्यकारी एवं पर्यवेक्षण अधिकारी अभी भी कंप्यूटर निरक्षर हैं. इस पर अनेक प्रशिक्षण कार्यक्रम और नए पुलिस उपयोगी सॉफ्टवेर उपयोग कर हार जाने के बाद.
@ जिससे हम अनुशासित भारतीय नागरिकों के बीच कार्य करते हुए सदभावना, सद्व्यहार और दयालुता की उम्मीद हमेशा पश्चिमी पुलिस की क्षमता और तत्परता के साथ की जाती है. [ एक प्रसंग : एक.....ट्रैफिक पुलिस ने एक बाइक सवार को वाहन के आवश्यक कागजात चेक करने को रोका, वह बड़ी हिकारत वाली मुद्रा बनाकर रुका क्योंकि अन्य लोग भी रोके जा रहे थे, फ़िर उसने आवश्यक जांच से पहले ही अपने सेल फोन से किसी को कॉल मिलाकर पुलिस को पकड़ा दिया,... पुलिस वाला खीसें निपोर कर तत्काल उसे जाने के लिए कहता है....| दूसरा....फ़िर भी दस्तावेज चेक कर 50/- रुपये जुर्माना राशि जमा करने कहता है, किंतु वह बाइक सवार विशेष नागरिक अपने सेल फोन का लगभग 100/- कई विशेषाधिकारियों को फोन लगाने में खर्च कर बिना जुर्माने की रकम अदा किए वहाँ से जाने में सफल हो जाता है.]
@ जिसके पास कानूनी अधिकार ही होता है, क्योंकि वह जिनके लिए काम करती है, केवल उनका मानव अधिकार होता है.
अरे कहाँ भूल-भुलैया में रह गया .........!!!!
फ़िर भी इस वर्ष- 2007-2008 के दौरान एक वर्ष की अवधि में 3000 से अधिक पुलिस जवान शहीद * हुए. जिनकी याद-सम्मान में आज 21 अक्टूबर को पुलिस शहीद दिवस मानती है. आखिर क्यों ? और क्यों ?......????
{ *शहीद-- याने की ड्यूटी के दौरान अपने कर्तव्य निभाते मृत्यु. }
उन सभी कर्तव्यनिष्ठ जांबांज शहीद पुलिस को मेरा सादर नमन....सेल्यूट .<
11 comments:
अच्छा लेख है लेकिन ये सब बातें हमें नही बताये हमें पता है उन नेताओं को बतायें जो इस देश को डुबाने के चक्कर में परे है।
मेरा ब्लाग।
http://ckshindu.blogspot.com
मै चंदन जी के विचारो से काफी हद तक सहमत हूँ . अभी तक शहीद हुए सभी पुलिस कर्मियो को जिन्होंने समाजहित में हंसते हंसते अपने प्राणों को निछावर कर दिया को श्रद्धासुमन अर्पित करता हूँ उनका बलिदान व्यर्थ नही जावेगा .
पुलीस फोर्स में कमी की भरपाई बेहतर तकनीकी इनपुट और जनता के बेहतर आत्मानुशासन से सम्भव है।
पर दोनो की किल्लत लगती है! :(
एक विचारणीय लेख है.....जरूरत इस वक़्त बरसो से चली आ रही इस प्रशिक्षण संस्थायों में मुलभुत सुधार की है जो अंग्रेजो के जमाने के कर्य्कमो पर चल रही है....एकं पुलिस के जवान को ओर सवेदनशील बनाये रखने के लिए उसे लगातार कुछ पाठयकर्मो से जोड़ा जाए साथ ही साथ समाज ओर पुलिस के बेहतर तालमेल के कुछ न कुछ कार्यकर्म लगातार चलाये जाए .
सभी जाबांज शहीदों को नमन एवं सलाम!!
बहुत ही दुखद एवं परेशान कर देने वाले आंकड़ें हैं. काश, कर्ताधर्ता कुछ सुनते.
आपको इस आलेख के लिए बहुत आभार.
आपके लेख पढकर आंखे जैसे झक्क से खुल गयी हो । मेरा एक मित्र सिपाही है इसलिये उसके माध्यम से मुख्यतः पुलिस के नीचे तबगे का दर्द मैने देखा है ।इतनी कठोर ड्युटी और राजनितीक विडंबना उन्हे चिडचिडा ना बनाये तो और क्या ?
मुझे दिल से पिडा हो रही है ।और एक जनता होने के नाते ऐसी राजनितीक परिस्थितियो के लिये हम और सिर्फ़ हम ही उत्तरदायी है!!
बिलकुल सही बात कही है आप ने,यह बात सभी को मालुम है लेकिन हमारी चुनी हुयी सरकार को नही मालुम.
धन्यवाद
a salut to you all really... i have friends in police force and i know how hard their working conditions are.. by the way aap jabalpur se hain... haal hi mein mujhe madhya pradesh kuch aisa pyaar ho gaya hai ki kya kahun! aap samajh hi gaye honge... thanks for visiting my blog.
cheers!
yahee prerak aalekh tha aaj "vimarsh"
ke liye
प्रिय समीर
यह एक संवेदनशील मुद्दा है कि पुलिस के शहीदों को जनता से सम्मान क्यों नहीं मिलता है ,
लेकिन एक बार जरा सोंचे,
मैंने अपने पंद्रह साल के सेवाकाल में आस पास हुए किसी भी एनकाउन्टर को वास्तव में सेल्फ डिफेन्स की परिणति के रूप में नहीं पाया ,
हमारी न्याय व्यवस्था कितनी भी लेट लतीफ़ व अंधी क्यों न हो ,
थाने में बैठे दो स्टारधारी तथा समस्त वरिष्ट स्टारधारी अधिकारियो की तुलना में ज्यादा निष्पक्ष और अपेक्षाकृत जवाबदेह है .
तो क्या हमको सडको पर गोलिया चला कर जीवन का फैसला करने का अधिकार है ,
सुरेश कलमाड़ी के जगजाहिर घनघोर भ्रष्टाचार को देख कर भी हम स्वतः संज्ञान नहीं ले पाते है ,तो फिर हमें किस नैतिकता के आधार पर पांच हजार के मोबाइल या चैन चोरी के मुजरिम को पूछताछ के नाम पर हिरासत में मृत्यु देने का अधिकार है ,
हमारा सारा साहस और वीरता सिर्फ गरीब और व्यवस्था के शिकार लोगो के खिलाफ प्रदर्शित होता है ,
तो फिर इस साहस के प्रदर्शन में मारे जाने पर शहीद का दर्जा भले ही हम खुद प्रचारित कर ले ,
लेकिन लाचार आम आदमी से शहीद की स्वीकार्यता कैसे पा पायेगे .
मैंने तो पुलिस को अपनी सुविधा के साथ दिखावटी दुविधा में देखना, सीखना आरम्भ कर दिया है; जहाँ आवश्यकता हो वहां सुविधा और जहाँ अनुचित लगे दुविधा. चहुँ ओर आनंद है सर. आपसे बहुत कुछ सीखने को मिलता है. शहीद कैसे और कौन लोग हैं...राम जानते हैं.
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