"लगभग अनामंत्रित" रचियता अशोक कुमार पाण्डेय ... की अनेक रचनाओं को पढकर निरपेक्ष या फिर निरापद नहीं रहा जा सकता. पाठक को मत बनाने या फिर सोचने को 'लगभग' नहीं निश्चित रूप से विवश करती है. उसी संग्रह से एक गीत...
एक सैनिक की मौत...
तीन रंगों के
लगभग सम्मानित से कपड़े में लिपटा
लौट आया मेरा दोस्त
अख़बारों के पन्नों
और दूरदर्शन के रुपहलों पर्दों पर
भरपूर गौरवान्वित होने के बाद
उदास बैठे हैं पिता
थक कर स्वरहीन हो गया है माँ का रूदन
सूनी माँग और बच्चों की निरीह भूख के बीच
बार-बार फूट पड़ती है पत्नी
कभी कभी
एक किस्से का अंत
कितनी अंतहीन कहानियों का आरम्भ होता है
और किस्सा भी क्या ?
किसी बेनाम से शहर में बेरौनक-सा बचपन
फिर सपनीली उम्र आते-आते
सिमट जाना सारे सपने का
इर्द-गिर्द एक अदद नौकरी के
अब इसे संयोग कहिये या दुर्योग
या फिर केवल योग
की देशभक्ति नौकरी की मजबूरी थी
और नौकरी जिंदगी की
इसीलिये
भारती की भगदड़ में दब जाना
महज हादसा है
और फँस जाना बारूदी सुरंगों में
शहादत !
बचप में कुत्तों के डर से
रस्ते बदल देने वाला मेरा दोस्त
आठ को मार कर मरा था
बारह दुश्मनों के बीच फँसे आदमी के पास
बहादुरी के अलावा और चारा भी क्या है ?
वैसे कोई युद्ध नहीं था वहाँ
जहाँ शहीद हुआ था मेरा दोस्त
दरअसल उस दिन
अखबारों के पहले पन्ने पर
दोनों राष्ट्राध्यक्षों का आलिंगनबध्द चित्र था
और उसी दिन ठीक उसी वक्त
देश के सबसे तेज चेनल पर
चल रही थी
क्रिकेट के दोस्ताना संघर्षों पर चर्चा
एक दुसरे चेनल पर
दोनों देशों के मशहूर शायर
एक सी भाषा में कह रहे थे
लगभग एक-सी गजलें
तीसरे पर छूट रहे थे
हँसी के बेतहाशा फव्वारे
सीमाओं को तोड़कर
और तीनों पर अनवरत प्रवाहित
सैकड़ों नियमित खबरों की भीड़ में
दबी थीं
अलग-अलग वर्दियों में
एक ही कंपनी की गोलियों से बिंधी
नौ बेनाम लाशें
अजीब खेल है
कि वजीरों के दोस्ती
प्यादों की लाशों पर पनपती है
और
जंग तो जंग
शान्ति भी लहू पीती है !
............अशोक कुमार पाण्डेय.
2 comments:
लाजवाब कविता है, इसकी हार्ड कॉपी लेकर मित्रों को पढ़ाता रहता हूं.
सोरियावत हें, की प्रति मिल गई, आनंद ले रहा हूं.
बहुत शुक्रिया भाई...हमें तो पता ही नहीं चला...
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