सुकवि बुधराम यादव की लम्बी कविता "गाँव कहाँ सोरियावत हे" की अगली कड़ी भाग- 9 के रूप में प्रस्तुत है. इस अंक में "सारंगी जब बाजय" में कवि ने लोक गीत-गायक, खेल-तमाशा,मनोरंजन,बाजार को स्मरण किया है...
सारंगी जब बाजय
भिनसारे ले हर-बोलवा मन
रूख ले अलख जगावंय!
झुनकी घुंघरू संग मजीरा
धरे खंजरी गावंय!
भाग देख दरवजा आइन
हर गंगा दुहरावंय!
सबके मंगल अपन संग म
मालिक ले गोहरावंय!
अब अपन हित खातिर पर के
गर म छुरी चलावत हें!
बेंदरा भलुवा धरे मदारी
जब गलियन म घूमय !
डमरू के डम डम ल सुनके
लइका पिचका झूमय!
डांग* चढ़ंय डंग-चगहा* कइ ठन
हुनर अपन देखावंय!
गुप्ती के पैसा अउ कोठी
के अन्न हर ले जावंय!
बस्तरिहा ओ जरी बूटी न
बैद सही अब आवत हें!
गोरखनाथी गोदरिया के
सारंगी जब बाजंय!
काम बुता ल छोड़ के लोगन
खोर गली बर भागंय!
भजन भरथरी अउ गोरख के
गा गा गजब सुनावंय!
हटवरिया* पखवरिया* भर
मेड़ो-डाँड़ो* तक जावंय!
अब तो ठगे जगे बर कतको
गलियन अलख जगावत हें!
खदबदहा* असाढ़ अब बरसय
सावन गजब चुरोवय!
पानी खिरत जात हे दिन दिन
भादो महीना रोवय!
अमली छइहाँ खड़े पहटिया*
चकमक चोंगी खोंचय !
मुड़ म खुमरी* तन भर कमरा रुख म ओठगे सोचय!
गौचर कब्जा करवइया के
गौ हर काय नठावत* हें !
बइहा पूरा तइहा के अउ
नदिया-खंड़* के खेती!
पानी बुड़ गय जमो कमाई
लगय राम के सेती!
हाट बाट अउ गांव गंवतरी
सपना लागय जावब!
गरीब दुबर के चिंता बाढय़
का पीयब का खावब!
धंधा पार उतारे के अब
केवट के दुबरावत हें!
हिंदी अरथ- डांग- दो बांसों को गड़ाकर उसमें रस्सा बांधकर रस्सी में चढऩे की प्रक्रिया, डगचगहा-डाँग पर चढऩे वाले बंजारा प्रवृत्ति के लोग, हटवारिया- सप्ताह भर में , पखवरिया- पखवाड़े भर, मेडो-डाँडो - दो गाँवों की सीमा, खदबदहा- अनियमित,खंड-खंड में, पहटिया- भैंसों के समूह का चरवाहा, खुमरी- बाँस की पतली पट्टी और पलास आदि की पत्तियों से खूबसूरत सिर ढकने हेतु बनी छतरी, नठावत- कसूर या अपराध, नदिया-खंड- नदी किनारे.
1 comment:
गरीब दुबर के चिंता बाढय़का पीयब का खावब!... sach mein gaon kee kitnee kaduwee sachayee hai yah...
bahut hi achha pryas hai aapka....
gaon kee saakar tasveer prastut kee hai is kavita mein Kavi Yadav ji ne...
Kavita ko samjhkar padhna bahut achha laga...
saarthak prasuti ke liye aabhar..
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