ऐसी ज्योति जला दो कोई कण कण सब रोशन हो जायें
भू पर बिखरे भेदभाव के सारे गहन तिमिर छंट जाएँ
दीप मालिका से यूँ कब तक
आँगन का श्रृंगार करोगे
अविवेक तम् का यूँ बुधजन
कब तक न प्रतिकार करोगे
ऐसी प्रीति जगा दो कोई दुश्मन शुभचिंतक बन जाए
ऐसी ज्योति जला दो कोई कण कण सब रोशन हो जायें
निर्मित कर स्वपंथ अहम् का
भस्मासुर कोई मत सिरजाओ
मानव मूल धर्म विस्मृत कर
मानवता को मत ठुकराओ
गंगा कोई बहा दो ऐसी सारे दलित पतित तर जाएँ
ऐसी ज्योति जला दो कोई कण कण सब रोशन हो जायें
अब न करो संकल्प नया कोई
धरती पर भगवान् को लाने
केवल यत्न करो तन मन से
इंसा को इंसान बनने
ऐसी सोच सृजन कर कोई हर चिंतन दर्शन बन जाए
ऐसी ज्योति जला दो कोई कण कण सब रोशन हो जायें
फूलों के बीच पालने वाले
काँटों की पीड़ा क्या जाने
तारों को सहलाने वालें
क्यों रोती वीणा क्या जाने
ऐसी रीत बता दो कोई जन जन समदर्शी बन जाए
ऐसी ज्योति जला दो कोई कण कण सब रोशन हो जायें
रचयिता
सुकवि बुधराम यादव
बिलासपुर
6 comments:
Test, Ok
bahut sundar rachana .sukavi budhdharaam yadav ji ko badhai .
भेदभाव के सारे गहन तिमिर छंट जाएँ
......
गंगा कोई बहा दो ऐसी सारे दलित पतित तर जाएँ
.........
फूलों के बीच पालने वाले
काँटों की पीड़ा क्या जाने
समीर जी बधाई हो ,आपके ब्लॉग पर आना सुखद रहा,सुकवि बुध राम यादव की कविता मात्र कविता नहीं एक आन्दोलन लगती है ,कितनी गहरी और सम्यक सोच है ,काश ऐसा हो जाये ...आपके भीतर बैठे इंसान पर खाकी का असर सकारात्मक हो ..देश और समाज के नवनिर्माण में सहायक हो मेरी शुभकामनायें स्वीकार हो
बहुत उत्तम कविता है....धन्यवाद इसे यहाँ बांटने के लिए!
आदरणीय बुधराम यादव जी की रचनाये सुनता पढता मै बड़ा हुआ हूँ...मूलतः यह रचनायें अद्भुत कवित्व....के साथ गेय शब्दावली शैली में रचित हैं , जो की आदरणीय बुधराम जी के मुख से सुने बिना अधूरे हैं.chhatisgadhi लोक साहित्य में यह वस्तुतः दुर्लभ है.....लेकिन यहाँ पर मेरी भी विवशता है कि उपलबध्ता के परिसीमा में जो हो सका है वह आपके सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूँ.
आदरणीय को सुकवि कि उपाधि उक्ताशय से ही प्रदत्त है.....कभी कवि सम्मलेन अथवा किसी गायन कार्यक्रम में उन्हें सुनना आदरणीय के प्रति सम्मान को वृद्धि ही करती है.
अब आप भी उनकी रचनाओं का पाठन करते हुए उस अद्भुत गेयता का रसास्वादन का अनुभव करें.
फूलों के बीच पालने वाले
काँटों की पीड़ा क्या जाने
तारों को सहलाने वालें
क्यों रोती वीणा क्या जाने
बहुत सुंदर पंक्तियाँ हैं, आभार!
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