Sunday, September 21, 2008

लेकिन छाँव तलक सर ना....

वैसे तो यह ब्लॉग आदरणीय "सुकवि बुधराम यादव जी" को समर्पित ही है। मैं यह आरम्भ से ही प्रयास कर रहा हूँ कि उनकी ऐसी रचनाएँ जो हिन्दी और छत्तीसगढ़ की धरोहर हैं...जो आज से लगभग २०-३० वर्ष पूर्व लिखी गई, विभिन्न मंचों, गोष्ठियों, कार्यक्रमों और आकाशवाणी से भी सुनी गई एवम प्रसारित हुई..किंतु उन्हें अधिकांशतः लेखनी रूप में अधिक पाठकों के बीच नहीं पहुँचाया जा सका ! अतएव इस माध्यम से मैं उनकी उक्त रचनाओं को यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ. विश्वास है आप लोगो को यह प्रयास भायेगा. आपके सुझाव भी सादर विचारणीय हैं.


लेकिन छाँव तलक सर ना....


हुआ नसीब न आम आदमी बनकर भी जीना मरना
मिथ्या है फ़िर आस व्यवस्था से सुविधाओं की करना


सुखी रोटी की आशा में मिहनत कश श्रम बेच रहे
क्षुधा अतृप्त बुझाते अविरल तन से जिनके श्वेद बहे
सिरजे लाख महल हाथों से लेकिन छाँव तलक सर ना....
मिथ्या है फ़िर आस व्यवस्था से सुविधाओं की करना


कुछ मुठ्ठी भर लोग जमाने की राहों को मोड़ रहे
छल प्रपंच से रीति नीति की बाहें तोड़-मरोड़ रहे
जनहित खातिर पाए हक़ से लगे सिर्फ़ झोली भरना....
मिथ्या है फ़िर आस व्यवस्था से सुविधाओं की करना


बहुरूपिये हो रहे आज ये प्रजातंत्र के पहरेदार
दिन प्रतिदिन बौने लगते वे कंधे जिन पर देश का भार
लाकर भी बसंत उपवन में जब पतझर सा है झरना.....
मिथ्या है फ़िर आस व्यवस्था से सुविधाओं की करना


रक्षक ही भक्षक बन बैठे कौन करे किस पर विश्वास
कुछ भी नहीं सुरक्षित मन में हरदम त्रास और संत्रास
बन्दर के जब हाथ उस्तरा मान चलो तब है मरना.....
मिथ्या है फ़िर आस व्यवस्था से सुविधाओं की करना


कैसे कोई रामराज्य के फ़िर सपने होंगे साकार
शबरी जटायु निषाद अहिल्या के कैसे होंगे उद्धार
जिन्हें समस्यायें रुचिकर हों समाधान से क्या करना.....
मिथ्या है फ़िर आस व्यवस्था से सुविधाओं की करना

रचियता ...
सुकवि बुधराम यादव
बिलासपुर

2 comments:

MANVINDER BHIMBER said...

mai isse dusre blog per bhi pad chuki hun....bahut sunder likh hai

दीपक said...

आपके आरकुट प्रोफ़ाइल मे इस परिचय गीत को देखा था यहा पुरा पढकर भावपुर्ण हो गया हुँ।प्रणाम आदरणीय को ।

आपने मेरी गलती की ओर उचित ध्यान दिया इस हेतु आपको धन्यवाद।