Friday, October 10, 2008

चालान की प्रति और करोड़ों का खेल





जबलपुर ही नहीं वरन समूचे मध्यप्रदेश में "चालान" की प्रति के नाम पर लाखों- करोड़ों रुपये के भ्रष्टाचार का खुला खेल वर्षों से चल रहा है. किसी भी आपराधिक प्रकरण में जल्द न्याय हो इसके लिए न्यायालय में समय से चालान पेश होने की महत्ता अपने आप में काफी महत्वपूर्ण है . कानून निर्माताओं ने दंड प्रक्रिया संहिता में ऐसे प्रावधान किये हैं कि आपराधिक प्रकरण में प्रत्येक आरोपी को चालान एवम उसमे संलग्न पुलिस के दस्तावेजों की निःशुल्क प्रतिलिपि अनिवार्य रूप से उपलब्ध कराई जाए. अनुशासन की दुहाई देने वाले पुलिस विभाग के वरिष्ठ अधिकारी इस बात पर चुप्पी साधे बैठे हैं कि आरोपी को चालान की प्रतिलिपि उपलब्ध कराना किसकी जिम्मेदारी है. वहीं न्यायालय में चालान पेश करने की जिम्मेदारी का निर्वहन करने वाला पुलिस कर्मचारी नासूर बन चुकी ऐसी पीड़ा झेल रहा है जिसे वह खुलकर व्यक्त भी नहीं कर सकता. दरअसल विभाग के इन्हीं कर्मचारियों पर जिम्मेदारी थोप दी जाती है कि वे आरोपी को चालान व पुलिस के दस्तावेजों की प्रतिलिपि उपलब्ध कराये. मध्यप्रदेश शासन पुलिस विभाग को दस्तावेजों की फोटोकॉपी के लिए पृथक से कोई भी बजट उपलब्ध नहीं करता है और यदि ऐसे में समस्त दस्तावेजों की फोटोकॉपी के लिए पुलिस कर्मी आरोपी से रुपये की मांग करता है तो सीधे सीधे दंड प्रक्रिया की धारा 207 में बनाये गए कानून का उल्लंघन होता है. यदि ये पुलिस कर्मी कानून का पालन करता है तो फोटोकॉपी ले लिए उसे अपनी जेब ढीली करनी पड़ती है जो अप्रत्यक्ष रूप से भ्रष्टाचार का प्रमुख कारण बनता है.






दृश्य एक


..........चोरी के एक मामले में पुलिस ने १० लोगों के खिलाफ विवेचना में सबूत जुटाये और प्रकरण न्यायालय में प्रस्तुत करने की स्थिति बनी. मामले की विवेचना करने वाले पुलिस कर्मी की धड़कने उस वक्त बढ़ने लगी जब आरोपियों को सैकड़ों पन्नों के दस्तावेजों की फोटोकॉपी देने का समय आया . पुलिस कर्मी ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 207 का पालन नहीं किया और कानून का भय दिखाकर आरोपियों से फोटोकॉपी के पैसे वसूल लिए . खास बात यह है कि पुलिस कर्मी ने आरोपियों से फोटोकॉपी में खर्च होने वाली राशि की तुलना में कुछ ज्यादा ही पैसे वसूल लिए.



दृश्य दो


........... एक आपराधिक प्रकरण में नियम कानून जानने वाले कुछ आरोपी या कह ले रसूखदार आरोपी इस बात पर अड़ गये कि चालान की फोटोकॉपी के पैसे वे नहीं देंगे . चालान पेश करने वाला पुलिस कर्मी चिंता में पड़ गया कि तकरीबन दो हजार रुपयों का इंतजाम कहाँ से किया जाए . पुलिस कर्मी ने आधिकारियों से मदद मांगी तो उसे कोई राहत नहीं मिली, किसी तरह manage करने की बात कह कर टाल दिया गया. इस मामले में पुलिस कर्मी को अपनी जेब से ही फोटोकॉपी कराने कि नौबत आ गई, तो जाहिर है वह अपनी जेब से थोड़े ही फोटोकॉपी कराएगा.





क्या कहता है....पुलिस मेनुअल और CrPC

मध्यप्रदेश पुलिस मेनुअल एवम रेगुलेशन एक्ट कंडिका [ पेरा ] - 524 में न्यायालय अर्दली के कर्तव्यों को स्पष्ट किया गया है. रेगुलेशन के मुताबिक "तेज बुद्धि का आरक्षक" जो ठीक से लिखने और पढ़ने योग्य हो, दंडाधिकारी और उसके प्रत्येक सहायक के न्यायालय में अर्दली के रूप में पदस्थ किया जायेगा. वह दंडाधिकारी का व्यक्तिगत अर्दली नहीं है और न ही दंडाधिकारी के न्यायालय के लिपिकीय कार्य के स्टाफ को भारमुक्त करने के लिए आशयित है. वह पुलिस अभियोजक के नियंत्रण में है, जो यह देखने के लिए जिम्मेदार है कि वह [ अर्दली ] अपने कर्तव्यों को दक्षतापूर्वक करता है. वह कार्यालयीन समय में न्यायालय में उपस्थित होगा और उसके कर्तव्यों में निम्नलिखित समावेश होगा...

१. व्यवस्था बनाये रखना
२. अभियुक्त की सुरक्षित अभिरक्षा
३. हिन्दी समन्स एवम वारंट लिखना एवम जारी करना
४. न्यायालय में अपने बचत समय में मामलों की डायरी के बयानों की नक़ल करने में सहायता करना जो बचाव पक्ष के उपयोग के लिए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 162 के अंतर्गत आवश्यक है.


..... दंड प्रक्रिया संहिता 1973

अभियुक्त को पुलिस रिपोर्ट या अन्य दस्तावेजों की नक़ल प्रतिलिपि देना
धारा 207 - किसी ऐसे मामले में जहाँ कारवाई पुलिस रिपोर्ट के आधार पर संस्थित की गई है, मजिस्ट्रेट निम्लिखित में से प्रत्येक के एक प्रतिलिपि अभियुक्त को अविलम्ब निःशुल्क देगा

१. पुलिस रिपोर्ट
२. धारा 154 की अधीन लेखबद्ध की गई प्रथम इत्तिला रिपोर्ट [ FIR ]
३. धारा 161 की उपधारा [3] के अधीन अभिलिखित उन सभी व्यक्तियों के कथन , उनमें से किसी ऐसे भाग को छोड़कर जिनको ऐसे छोड़ने के लिए निवेदन की धारा 173 की उपधारा [6] के अधीन पुलिस अधिकारी द्वारा किया गया है.
४. धारा 164 के अधीन लेखबद्ध की गई संस्विकृतियाँ या कथन , यदि कोई हों .
५. कोई अन्य दस्तावेज या उसका सुसंगत उद्धरण जो धारा 173 की उपधारा [5] के अधीन पुलिस रिपोर्ट के साथ मजिस्ट्रेट को भेजी गई है.




अभियोग पत्र या चार्ज शीट जिसे सामान्य भाषा में " चालान " कहा जाता है. पुलिस के द्वारा किसी भी अपराध की विवेचना में आरोप सिद्ध पाए जाने ऐ उपरांत आरोपियों के विरुद्ध विचारण हेतु न्यायालय में प्रस्तुत किया जाता है .

भारतीय कानून व्यवस्था में समस्त भारतीय नागरिकों को एक समान दर्जा दिया गया है. चाहे वह किसी मामले में आरोपी ही क्यों न हो..? और जब तक उसके विरुद्ध अपराध सिद्ध न हो जाये, उसे एक सामान्य नागरिक होने के रूप में समस्त अधिकार प्राप्त होते हैं. इसके लिए आरोपी जिसके विरुद्ध पुलिस में प्रथम सूचना रिपोर्ट [FIR] दर्ज करायी जाती है. उस अपराध की विवेचना में आरोप सिद्ध पाए पर साक्ष्य एकत्र कर विवेचक उसे गिरफ्तार करता है. जमानतीय मामलों में आरोपी को जमानत दे दी जाती है, तथा अजमानतीय मामलों में उसे न्यायिक अभिरक्षा में भेज दिया जाता है. फ़िर विवेचना पूर्ण होने पर उसके खिलाफ अभियोग पत्र प्रस्तुत किया जाता है.

आरोपी के रूप में नामजद व्यक्ति के नैसर्गिक, संवैधानिक और कानूनी अधिकार का संरक्षण करने हेतु दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 207 के अंतर्गत उल्लेखित किया गया है कि किसी ऐसे मामलें में जहाँ कार्रवाई पुलिस रिपोर्ट के आधार पर संस्थित की गई हो, उसे चालान की प्रतिलिपि निःशुल्क उपलब्ध कराया जाना चाहिए.

जानकार कहते हैं कि कभी-कभी मध्यप्रदेश पुलिस मेनुअल एवं रेगुलेशन एक्ट पर 524 का हवाला दे दिया जाता है, जो कि ग़लत तर्क है. दरअसल पुलिस की तरफ़ से कार्य में लगे न्यायालय अर्दली को सामान्य व्यवस्था, अभियुक्त की सुरक्षित अभिरक्षा, हिन्दी समन्स, वारंट्स लिखने और जारी करने के कार्य से मिले बचत समय में जो मामलों की डायरी से बयानों की नक़ल करने में सहायता की , जो एक लाइन लिख दी गई है, उसके आधार पर पुलिस ने शायद अपना अधिकार ही मान लिया है. जबकि पुलिस रेगुलेशन में यह आदेश उस ज़माने का है जब न फोटोकॉपी मशीन थीं, न ही typewritter का चलन आम था.

पुलिस विभाग में इस प्रावधान को अलग-अलग लोगों ने अपनी तरह से परिभाषित कर लिया और नफा-नुकसान के खेल में लिप्त हो गए. चालान की कॉपी कराने का दर भी पृथक-पृथक तय किया गया है. स्वाभाविक है , न्यायालय अर्दली जैसी जगह जहाँ कुछ न हो, वहां लहरें तो गिनना पड़ेगा !!! इस सम्बन्ध में यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि पुलिस विभाग या शासन स्तर पर किसी अन्य माध्यम से चालान की कॉपी कराकर एक नक़ल प्रति मुलजिम [बचाव पक्ष] को देने के लिए कोई फंड की व्यवस्था नहीं है, न ही कोई बिल स्वीकृति करने का प्रावधान है, फ़िर भी चालान की कॉपियाँ तो हो रही हैं और काम भी चल रहा है. आख़िर ये कॉपियाँ हो कैसे रही हैं ? रुपये कहाँ से आते हैं ?? कितना खर्च हो रहा है ??? यह विचारणीय है.

इस क्षेत्र में जो होशियार है वो तो वर्षों से चालान ड्यूटी कर रहे हैं और जिन्हें कॉपी कराने का कार्य manage करना नहीं आता वो ड्यूटी लगते ही कहने लगते हैं, चालान कैसे पेश हो पायेगा ? मैं कहाँ से कराऊंगा कॉपियाँ , लेकिन परम्परा है तो निभानी पड़ेगी की तर्ज पर वह भी कार्य करता जाता है. शायद अपने वेतन के रुपयों से कॉपियाँ कराकर या फ़िर कोई और रास्ता अपनाने के लिए वह भी मजबूर हो जाता है. परिणाम स्वरुप भ्रष्टाचार का व्यवस्था के स्तर पर खुलेआम स्वीकृति देना और इस पर कोई स्पष्ट दिशा निर्देश जारी न कर , बढावा देने की बात साफ जाहिर होती है. पुलिस जिसकी छवि आमतौर पर ठीक नहीं कही जाती है, उसके विरुद्ध यह और भी नकारात्मक है और व्यवस्था भी इस न्याय-अन्याय कि लड़ाई में चालान की निशुल्क प्रति की तरफ़ बेसुध है. निशुल्क न्याय देना की नीति का हश्र इन गरीबों की कटती जेबों से दिखाई दे जाता है. यह एक ऐसा गोरखधंधा बन चुका है जिसमें लाखों-करोड़ों का खेल हर महीने हो रहा है और किसी के कानो में जूं तक नहीं रेंग रही है.



न्याय में विलंब


पुलिस की विवेचना और साक्ष्य जुटाने के तरीकों के बारे में वैसे भी अच्छी धारणा नहीं है. विवेचना के दौरान पुलिस अभियोजन के लिए यथासंभव साक्ष्य जुटा कर अनेक व्यक्तियों के खिलाफ न्यायालय में चालान प्रस्तुत करती है. तब ऐसे में वे व्यक्ति जो अपने को बेगुनाह साबित करना चाहते हैं, उनके लिए एक मात्र रास्ता न्यायालय से न्याय पाने का रह जाता है. जिसके लिए जरुरी है कि चालान समय पर न्यायालय में समय पर प्रस्तुत हो जाये, किंतु आर्थिक कारणों से यदि चालान की प्रतिलिपि के लिए वह पैसे नहीं जुटा पाता है तो चालान न्यायालय में समय से पेश नही हो पाता है. इस स्थिति में व्यक्ति को न्याय पाने के लिए पता नहीं और कितने दिन इंतजार करना पड़ता है. एक मामले में माननीय उच्चतम न्यायलय में साध्वी ऋतंभरा के खिलाफ दायर याचिका में सम्बंधित शासन [अभियोजन पक्ष] को साध्वी के आवेदन पर उस जनसभा के ऑडियो और विडियो केसेट की प्रतिलिपियाँ उपलब्ध कराने को मान्य किया था. और सम्बंधित न्याय के केसेट्स की प्रतिलिपियाँ तैयार करने के लिए अस्वीकृति को उचित नहीं माना था.

यह व्यवस्था जो किसी भी कारण से चल रही है, उसमें पुलिस के पास कोई निर्धारित फंड कि व्यवस्था नहीं जबकि वह अभियोजन पक्ष के रूप में है...? शासकीय अभियोजक जो न्याय के लिए अभियोजन पक्ष की और से पैरवी करता है. और जिसके नियंत्रण एवम मातहत जो अर्दली कार्यरत है उनकी भूमिका....? और व्यवस्था में इस तरह के अदृश्य रूप में चल रहे कार्यों पर नजर एवम अंकुश हेतु जो विजिलेंस गठित है, उसके कार्य विचारनीय है ???

और आप भी विचार कर सकते है !!!



जवाब किसी के पास नहीं ..?????


जानकारों का कहना है कि चालान की फोटोकॉपी के नाम पर समूचे मध्यप्रदेश में हर साल करोड़ों रुपये आरोपी या फरियादी की जेब से वसूल कर संबंधितों [ पुलिस एवम अन्य ] द्वारा करोड़ों खुलेआम भ्रष्टाचार किया जा रहा है . यदि उदाहरण के रूप में देखा जाए तो जबलपुर जिले में यदि साल भर में सिर्फ़ दस हजार आपराधिक प्रकरणों का दर्ज होना तथा प्रत्येक मामले में सिर्फ़ दो लोगों को आरोपी बनाया जाना मान लिया जाये तो करीब एक करोड़ रुपये का भ्रष्टाचार आशंकित है. कई आपराधिक प्रकरणों में तो पुलिस दस्तावेजों व चालान की प्रतियाँ की संख्या सैकड़ों में होती है . फ़िर भी प्रत्येक चालान की प्रतिलिपि में सिर्फ़ पॉँच सौ रूपये का अनुमानित खर्च मान लिया जाये तो आंकड़ा करीब एक करोड़ रुपये तक पहुँच जाता है. बात यदि प्रत्येक जिले में इतने ही आपराधिक मामलों की जाए तो पैंतालिस जिलों के हिसाब से राशि ४५ करोड़ रपये हो जाती है. इतनी बड़ी रकम आती कहाँ से है इसका उत्तर किसी के पास नही है....?????

जानकारी साथी रामकृष्ण परमहंस पाण्डेय से साभार

9 comments:

अनूप शुक्ल said...

अच्छी जानकारी है। यह विडम्बना है कि लगभग सभी राज्य सरकारें अपने विभागों को उनका कामकाज सुचारु रूप से चलाने के लिये साधन मुहैया कराने के मामले में बेहद उदासीन हैं!

Udan Tashtari said...

बहुत अच्छी जानकारी दी आपने. आश्चर्य होता है सब जान सुन कर. काश, सरकारें ये मूल बातें समझ कर इस ओर ध्यान दें.

दीपक said...

एक अच्छी जानकारी दी आपने !! शासन की न्याय व्यवस्था मे पारदर्शीता और जागरुकता की दिशा मे इसे आपका एक अत्यंत बेहतर प्रयास कहा जा सकता है!!

समीर यादव said...

दरअसल यह जानकारी दुविधा की स्थिति से उबर कर उन आम लोगों को राहत देने की अपील है जो पुलिस, अभियोजन और न्यायिक व्यवस्था से जुडकर पूरी ईमानदारी से अपना कार्य कर रहें हैं. वस्तुस्थिति क्या है ? उसकी बानगी ये है !!! और क्या होना चाहिए यह नीति नियंताओं को सोचना है.

Gyan Dutt Pandey said...

यह विचित्र लगता है। राज्य सरकारों को उपयुक्त संसाधन तो मुहैय्या कराने ही चाहियें। लीकेज ऑफ रिसोर्सेज के लिये अलग कदम होने चाहियें। अन्यथा उनका उपयुक्त प्रयोग नहीं होगा, वह भी लगभग तय है।

अजित वडनेरकर said...

अच्छी पोस्ट.....शुक्रिया ज्ञानवर्धन का...

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत अच्छी जानकारी दी आपने।शासन को इस तरफ बहुत ध्यान देने की जरूरत है।सरकार को चाहिए कि वह पूरी तरह से व्यवस्था को ठीक करे।जानकारि देने के लिए आभार।

योगेन्द्र मौदगिल said...

बहुत जरूरी जानकारी तथ्यों सहित दी आपने...
कमाल है....
अब समझ में आया कि फोटोस्टेट वाले थाने के सामने ही अपनी दुकान क्यों खोलते हैं..?

Smart Indian said...

जानकारी के लिए धन्यवाद. जानकर आश्चर्य हुआ कि ऊपर बैठे हुए बड़े अधिकारियों की प्राथमिकता में आम आदमी से रोज़ वास्ता पड़ने वाली बातें कहीं नहीं हैं. ऐसे रहते हुए किस तरह से पुलिस जनता की सेवक, सहायक, रक्षक या मार्गदर्शक बन सकती है?