Thursday, August 14, 2008

आंसू पीकर फिर बैरन ये साँस ठहर ना जाये






आंसू पीकर फिर बैरन ये साँस ठहर ना जाये
इससे पहले अब अधरों पर आओ गीत सजाये

औरों से छल करते करते
खुद को ही छल डाले
स्थिरता के बदले भीतर
मृगत्रिष्णा को पाले
गैरों को क्या अपनाते जब अपने हुए पराये
आंसू पीकर फिर बैरन ये साँस ठहर ना जाये

हमने हरदम बचना चाहा
परनिंदा परद्रोहों से
किन्तु बताओ बचा कौन है
अपनों के विद्रोहों से
राम तलक निर्वासित होकर वन में वास बनाए
आंसू पीकर फिर बैरन ये साँस ठहर ना जाये

क्यों न विमुख होगा अंतर्मन
नेह रहित उपभोगों से
एक बूंद भी स्नेह मिला ना
बिना स्वार्थ जब लोगों से
हमने करके होम निरंतर अपने हाथ जलाये
आंसू पीकर फिर बैरन ये साँस ठहर ना जाये

सुधा पिलाकर जो औरों को
विषम गरल खुद पीतें हैं
पाकर वे अमरत्व जगत में
तुझमें मुझमे जीते हैं
इसीलिये हमने भी कितने क्षीर सिन्धु विलगाये
आंसू पीकर फिर बैरन ये साँस ठहर ना जाये

अपनों के खातिर कुछ
खोने का संत्रास नहीं था
लेकिन कुंडल कवच मांग लेंगें
यह विश्वास नहीं था
खेद है सबकुछ देकर भी हम कर्ण नहीं कहलाये
आंसू पीकर फिर बैरन ये साँस ठहर ना जाये


रचयिता
सुकवि बुधराम यादव
बिलासपुर

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